(सन्देश १३) सितम्बर 2011 का प्रथम पाक्षिक निवेदन-
सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ एवम् सर्वसुहृद परमात्मा से जुड़ने को योग कहते हैं। वास्तव में तो जीव उस परमात्म-सत्ता से कभी पृथक हुआ ही नहीं, किन्तु उसे केवल भूल गया है। इस भूल के कारण वह अपने को उससे पृथक मान बैठा है। इस भूल को मिटाना ही योग है। योग को प्राप्त करने के लिए शास्त्रों में, अर्थात् स्वयं परमात्मा की वाणी में, जो साधन बताये गये हैं, उन्हें काम में लाना ही योग-साधन कहा जाता है। ये साधन करना केवल मनुष्य योनि में ही सम्भव है। इसके सम्पन्न करने के लिये परम दयालु परमात्मा ने मनुष्य को शरीर, प्राण, तथा जीवन सहित बुद्धि तत्त्व भी दिया है, जो इन सब का नियामक है। अन्य योनियों में बुद्धि-तत्त्व अत्यन्त अल्प है और उन योनियों में योग-साधन असम्भव है। बुद्धि-तत्त्व द्वारा शास्त्रों की आज्ञाओं को जानने और मानने से योग साधन करना सम्भव हो जाता है। उन्हें जान लेना उत्तम है, किन्तु उन्हें मानने से भी वे स्वयं जानने में उतरने लगते हैं। योग साधन में मुख्य बाधक है – शरीर सुख का भोग। रुचिकर पदार्थों को ग्रहण करने से प्राप्त सुख को अधिकाधिक अनुभव करने की रुचि होती है। फिर धीरे-धीरे रुचि बढ़ने पर चित्त उनमें ही रमण करने लगता है। यहीं से भाँति-भाँति के रोग मनुष्य को घेर लेते हैं। फिर मनुष्य अपने वास्तविक लक्ष्य, भगवत्प्राप्ति, को भूल कर शरीर के रोगों की निवृति और पुनः भोगों की प्राप्ति में ही जीवन समाप्त कर देता है। मनुष्य शरीर की समाप्ति पर नीची योनियों में अनन्त काल तक रहना पड़ता है, जिन्हें भगवान् ने आसुरी योनि बताया है। (गीता १६/१९-२०)
सांसारिक भोग तीन प्रकार के होते हैं – धन सम्पत्ति, मान-प्रतिष्ठा तथा दाम्पत्य-सुख। इनको उचित मात्रा में उपयोग करने से योग-साधन सुगम एवं सुखकर हो जाता है (गीता ६/१६-१७)। अतः इनसे सम्बन्धित पदार्थों को ग्रहण करना अपने आप में हानिकारक नहीं है। इनको उचित मात्रा में ग्रहण करना योग साधन में सहायक है, किन्तु उनमें रमण करना ही योग साधन से मनुष्य को हटाता है। उदाहरणार्थ, सुस्वादु, सात्त्विक भोजन उचित मात्रा में ग्रहण करना योग साधन में सहायक है। किन्तु जब स्वाद के लिए भोजन किया जाता है, तो फिर चित्त उसमें रमण करने लगता है और वही मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है। इसी प्रकार मान-प्रतिष्ठा तथा दाम्पत्य-सुख योग साधना में सहायक हो सकते हैं किन्तु उसमें रमण करना बुद्धि का नाश कर देता है (गीता २/४४) और मनुष्य अपने अमूल्य जीवन में कष्ट पाकर जीवन का अन्त होने पर आसुरी योनियों में और अधिक कष्ट भोगने के लिए चला जाता है(गीता २/६२-६३)।
योग साधन में सबसे शक्तिशाली सहायक है – निरन्तर नाम-जप करना। आरम्भ में थोड़ी मालाओं का नियम लेकर नाम-जप करना चाहिए। षोडशाक्षर मंत्र का जप हर परिस्थिति में किया जा सकता है। धीरे-धीरे उसे बढ़ाने का प्रयत्न भी करना चाहिए। जैसे-जैसे नाम-जप बढ़ेगा, भोगों में रमण की वृत्ति क्षीण होने लगेगी और मन भगवान् में लगने लगेगा। फिर भगवत्कृपा मनुष्य को अपनी ओर आकृष्ट कर लेगी जिसका प्रमाण है धर्म-ग्रन्थों का स्वाध्याय और सत्संग में रुचि।
योग के साधक को भगवान् तपस्वी, ज्ञानी और कर्मों से भी श्रेष्ठ बताते हैं (गीता-६/४६)। संसार से विमुख होने और परमात्मा के सम्मुख होने पर, योग के जिज्ञासु से लेकर सिद्ध योगी तक को “योगी” कहा जाता है। योग का जिज्ञासु भी वेद के शासन का उल्लंघन कर परमात्मा के शासन में उसी प्रकार रहता है, जिस प्रकार आश्रम में शिक्षा पाने वाला शिष्य, घर के नियन्त्रण से हटकर आचार्य के नियन्त्रण में रहता है (गीता-६/४४)। योग की जिज्ञासा तथा योगी बनने की उत्कट इच्छा होने पर परमात्मा स्वयं मनुष्य को भोगों तथा रोगों से मुक्त कर योगी बनने की सामर्थ्य प्रदान करते हैं।
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