नववर्ष २०२५ में प्रसन्नता की भेंट

क्या आप जानना चाहेंगे कि बुद्धि की एकाग्रता, स्मृति-शक्ति और चुनौतियों पर विजय पाने की क्षमता कैसे बढ़ाई जा सकती है? जीवन के हर पक्ष में ये तीनों ही गुण बहुत ही उपयोगी होते हैं – चाहे कार्यक्षेत्र हो, परीक्षाओं की तैयारी अथवा पारिवारिक संबंधों से व्यवहार। और आश्चर्य की बात यह है कि इन गुणों को प्राप्त करने के लिए हमें बस एक काम करना है – हमें हर पल प्रसन्न रहना है ! … क्योंकि चित्त की प्रसन्नता ही बुद्धि की स्थिरता का आधार है –

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते ।। २-६५ ।।

और उस निर्मलता के होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है। ।। २-६५ ।।

पूज्य ‘नानाजी’ (श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा) ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता : जीवन वैभव’ में इस श्लोक पर विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है, जिसके सार बिंदु इस प्रकार हैं–

१) संसार के विषयों, परिस्थितियों, व्यक्तियों से जो भी अनुभव हमें प्राप्त होते हैं, उनके प्रति मन में अच्छा-बुरा लगने का भाव, और इसके आधार पर कुछ करने अथवा न करने के संकल्प-विकल्प उठते हैं।
२) बुद्धि में भगवान् ने ऐसी शक्ति दी है कि मन के इस अच्छे-बुरे लगने से वह प्रभावित न हो। बुद्धि यह निश्चय कर सकती है कि शास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर हर परिस्थिति में हमारे लिए क्या करना उचित है? जीवन के लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति की ओर बढ़ने के लिये हर परिस्थिति में हम क्या करें, क्या सोचें?
३) केवल इसी आधार पर निश्चय करने के अभ्यास से हमें यह योग्यता प्राप्त होती है कि हर पल अपने अंतःकरण को प्रसन्न रखा जाए। और जब चित्त प्रसन्न रहता है, तब बुद्धि की चंचलता समाप्त होती है तथा उसमें ऐसी शक्ति आती है कि वह परमात्मा में स्थिर हो सके।
४) बुद्धि की ऐसी स्थिरता से एकाग्रता और स्मरण-शक्ति, दोनों में चमत्कारिक वृद्धि होती है और जीवन की जटिल चुनौतियों का समाधान करने की योग्यता हमें प्राप्त होती है।

परम पूज्य ‘बाबूजी’ श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार एवं परम पूज्य श्री राधाबाबा की अत्यंत कृपा से तथा सत्संग एवं स्वाध्याय के माध्यम से हम सब प्रसन्न रहने के विभिन्न सिद्धांतों और उपायों से भली प्रकार परिचित हैं। अब आज से ही हम बस यह ठान लें कि आने वाले वर्ष में हम इन उपायों को निश्चयपूर्वक अपनायेंगे। भगवान् एवं संतों की कृपा का आश्रय लेकर हम हर परिस्थिति में अपने अंतःकरण में प्रसन्नता बनाये रखेंगे। साथ ही, अपने घर में प्रसन्नता का वातावरण निर्मित करेंगे जिससे हमारा तथा हमारे बच्चों एवं प्रियजनों का उत्साह और उनकी एकाग्रता बढ़ती रहे। नववर्ष में कल्याण-प्राप्ति के लिए इससे अधिक सुखदायक भेंट क्या हो सकती है !

 

*********

 

Download Pdf

 

राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥