दीपावली पर्व का उज्ज्वल सौंदर्य हमें स्मरण दिलाता है कि प्रभु की स्वाभाविक रुचि प्रकाश और उत्फुल्लता के भावों में है। इस पर्व पर वे हमें प्रेरित करते हैं कि हम अपने हृदय को इन्हीं भावों से शृंगारित करें और इनके बाधक तत्त्वों को दृढ़ता से त्याग दें। राग-द्वेष, अहंकार-आसक्ति, भय-क्रोध आदि ही वे बाधक तत्त्व हैं जिनसे जीवन में विषाद, चिंता, निरुत्साह और नकारात्मकता हम पर हावी हो जाते हैं।
इनसे मुक्त होने के लिए परम पूज्य श्री राधा बाबा ने एक सुंदर उपमा प्रस्तुत की है। गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘सत्संग-सुधा’ के लेख ‘भगवान् की ज्योति जगा लें’ में वे कहते हैं कि लौकिक दीप देखने के लिए पाँच चीज़ें आवश्यक हैं – दीपक, स्नेह (घी या तेल), स्नेह में सनी बत्ती, किसी जलते दीप से बत्ती का संपर्क और उस ज्योति को देखने वाली आँखें। इसी प्रकार, प्रभु के आलोक के दर्शन के लिए भी निम्नांकित पाँच आवश्यकताएँ हैं –
(१) सबसे पहले प्रभु की ज्योति अनुभव करने के लिए श्रद्धा की आँखें होनी चाहिये। भगवान् सर्वसमर्थ हैं एवं करुणा-सिंधु हैं – इसलिए न तो किसी अन्य मनुष्य पर निर्भर होना है, न अपने पुरुषार्थ (अहंकार) पर, अपितु केवल प्रभु के मंगलमय चरणों का आश्रय रखना है। बुद्धि में भगवान् की सत्ता पर ऐसा दृढ़ निश्चय होना ही है श्रद्धा की निर्मल आँख।
(२) जिस प्रकार उलटाये हुए दीपक में तेल भरना हो तो उसे पहले सीधा करना होता है, उसी प्रकार इंद्रियों को विषयों की ओर से लौटाकर उनका मुख प्रभु की ओर करना होगा। संसार से प्राप्त होने वाले सभी सुख – चाहे इंद्रियों के विषय- भोग हों अथवा मान-सम्मान की सूक्ष्म इच्छा, इन सभी को अल्पकालिक जानकर सुख के स्रोत भगवान् की ओर इंद्रियों को मोड़ना होगा।
(३) इंद्रिय-रूपी दीपकों का भगवान् की ओर उन्मुख होते ही इंद्रियों का आकर्षण प्रभु की ओर क्षण-क्षण में बढ़ने लगेगा और यह आकर्षण फिर प्रेम की स्निग्धता में परिणत होकर उन दीपकों में एकत्र होने लगेगा।
(४) इंद्रियों के साथ मन के जुड़े रहने से फिर मन की वृत्तियाँ भी एकाग्र होकर एक भगवान् की ओर उन्मुख हो जाती हैं, मानो बिखरे हुए तंतु जुड़कर बत्ती के रूप में परिणत हो गये हों। इस प्रकार इंद्रियों की भगवत्-प्रेम की स्निग्धता मन-रूपी बत्ती को स्निग्ध कर देती है, भगवान् के प्रति उस मन को राग-युक्त बना देती है।
(५) इस प्रकार जब बुद्धि में श्रद्धा-युक्त निश्चय हो और मन-इंद्रियों में केवल भगवान् के प्रति राग हो, तब भगवान् स्वयं ही संत का रूप धारण करके हमें ढूँढने आते हैं। संत हमें हृदय से लगा लेते हैं और अपने हृदय में जल रही प्रभु- ज्योति से हमारी बत्ती आलोकित कर देते हैं।
इस प्रकार के शास्त्र और संत वचनों को जीवन में धारण करने के लिए पूज्य नानाजी (श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा) ने “श्रीमद्भगवद्गीता : जीवन विज्ञान”, अध्याय १२, श्लोक २० की व्याख्या में दो महत्त्वपूर्ण चरण बताये हैं –
(१) सर्वप्रथम, उन वचनों को ध्यान से बारंबार पढ़कर मन में यह विश्वास दृढ़ करें कि इनको धारण करने में ही मेरा कल्याण है।
(२) यदि इन वचनों का पालन अव्यावहारिक या असंभव लगे, तो इसका कारण अपने मन की दुर्बलता जानकर भगवान् से उस दुर्बलता को हटाने की कातर प्रार्थना करें।
तो आइए, परम पूज्य श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाईजी’, परम पूज्य श्री राधा बाबा एवं परम पूज्य नानाजी के चरणों का आश्रय लेकर इस दीपावली हम हृदय में भगवान् की ज्योति जगाने के लिए कटिबद्ध हो जायें और अपने स्वजनों को भी यही प्रेरणा दें।
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