शुभ व सक्रिय दीपावली २०२२

दीपावली के प्रति हमारा स्वाभाविक आकर्षण हमें याद दिलाता है कि अपने भीतर और बाहर, हर स्तर पर प्रसन्नता, प्रेम, सौहार्द व शान्ति का प्रकाश व्याप्त हो, यही हमारी आन्तरिक इच्छा है। इसके लिए धर्मग्रंथों में वर्णित दैवी-सद्गुण और भक्त के लक्षण अभिव्यक्त करने की सक्रिय चेष्टा बहुत आवश्यक है। किन्तु अपनी सामर्थ्य, परिस्थितियां और अपने साथ अन्यों के व्यवहार को देखकर कभी-कभी ऐसा लगता है कि इनको धारण करना बहुत कठिन है। इस विषय में श्री धमेंद्र मोहन सिन्हा (पूज्य ‘नानाजी’) के वचनों पर आधारित कुछ उपयोगी सूत्र प्रस्तुत हैं –

१. गीता (१६/५) में भगवान् का महान् आश्वासन है – ‘हे अर्जुन! तू शोक मत कर, क्यूंकि तू दैवी-सम्पदा से युक्त है’। अतः इन गुणों को प्रकट करना हर मनुष्य के लिए सहज, स्वाभाविक कार्य है। कठिनाई इसलिए अनुभव होती है क्योंकि इनके विपरीत विचारों-व्यवहारों को हम किसी न किसी दृष्टि से अपने अपने लिए ठीक समझते हैं, इसलिए अपने दैवी स्वभाव पर स्वयं ही आवरण डाल लेते हैं ।

२. यदि हम यह कहें कि इन आवरणों को हटाने की सामर्थ्य हम में है ही नहीं, तो इस भ्रम के निवारण के लिए पूज्य नानाजी का उत्तर है –‘जिस कम्बल को आप ओढ़ सकते हैं, उसे उतार भी सकते हैं।’

३. गीता (६/५-६) से यह स्पष्ट है कि हर परिस्थित, हर व्यक्ति के रूप में स्वयं भगवान् ही हमारे सामने प्रकट हो रहे हैं जिससे हमें इन सद्गुणों को अभिव्यक्त करने का अवसर मिले। इसलिए जब हम इस अवसर का सदुपयोग कर लेते हैं, तब हम अपने साथ मित्रता करते हैं। परन्तु जब हम किसी परिस्थिति अथवा व्यक्ति को अपने अनुचित आचरण के लिए दोषी ठहराते हैं, तब हम स्वयं ही अपने साथ शत्रुता करते हैं।

४. दैवी सद्गुण और भक्त के लक्षण अभिव्यक्त करने के लिए –

  • सर्वप्रथम हम स्वाध्याय, सत्संग व मनन द्वारा इन लक्षणों को एक-एक करके और पूरी तरह समझकर अपने मन में धारण करें – अर्थात मन में यह विश्वास दृढ करें कि इन लक्षणों से युक्त होने में ही हमारा कल्याण है।
  • साथ ही, मन की दुर्बलता हटाने और इन लक्षणों को प्रकट करने के लिए सच्चे मन से भगवान् से कातर प्रार्थना करें।
  • व्यावहारिक स्तर पर आसुरी-सम्पदा नाश के लिए संतों द्वारा बताये गए तीन अचूक साधन हैं – अपने अपराधों के लिए निरंतर क्षमा याचना करना, भगवान् व गुरुजनों को कृतज्ञता व्यक्त करना तथा सब में भगवान् का अध्यास करके उनमें गुणदर्शन करना व प्रशंसा करना।

 

५. हमें मनुष्य-जन्म मिला ही इसलिए है कि हम इन सब अवगुणों व विकारों से मुक्त हो जाएाँ। परम पूज्य राधा बाबा का आश्वासन है कि मन में यदि इन्हें छोड़ने की तीव्र लालसा है, तो भगवान् की कृपा अवश्य ही हमें इनसे मुक्त कर देगी। इसलिए मुख्य आवश्यकता यह है कि इनको छोड़ने की सच्ची और तीव्र इच्छा हो।

तो आइये, भगवत्कृपा का आलम्बन लेकर हम इस कार्य में जुट जाएँ, जिससे दीपावली पर बाहर-भीतर, चारों दिशाएं भक्ति, सौहार्द और प्रेम के सद्भावों से प्रकाशित हो उठें।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥