सत्संग और कुसंग

(सन्देश २१) – जनवरी २०१२ का प्रथम पाक्षिक निवेदन –

 

श्रीमद्‌भगवद्‌गीता (२/६२-६३) में मनुष्य के पतन तथा सर्वनाश के कारण का क्रम बताते हुए भगवान्‌ ने कहा है –

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ||

अर्थात्‌, (हे अर्जुन! मनसहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से) पुरुष के मन द्वारा विषयों का चिन्तन होता है; विषयों का चिन्तन करने से (पुरुष की) उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है; कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है…! ।।

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||

..क्रोध से अविवेक अर्थात्‌ मूढ़भाव उत्पन्न होता है, और अविवेक से स्मरण-शक्ति भ्रमित हो जाती है, स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात्‌ ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से इस पुरुष का सर्वनाश हो जाता है अर्थात्‌ वह अपने श्रेय साधन से गिर जाता है”।।

इन श्लोकों से यह ज्ञात होगा कि सर्वनाश के क्रम का आरम्भ सांसारिक विषयों में सुख-बुद्धि पूर्वक उनका ध्यान और उनकी प्राप्ति की कामना से होता है। इसके विपरीत, दूढ़-निश्चय पूर्वक एकमात्र ‘सत्‌’ वस्तु परमात्मा की स्मृति तथा उनके ध्यान से मनुष्य को अक्षय-सुख अर्थात्‌ भगवान्‌ की प्राप्ति होती है (गीता ८/७ व ८)।

सुख-बुद्धि से जिस किसी वस्तु की प्राप्ति का ध्यान होता है, उसे उस वस्तु का ‘संग’ कहा जाता है। यह संग भावों, विचारों, व्यक्तियों, परिस्थितियों एवं वस्तुओं के निमित्त से होता है। जिन निमित्तों से सांसारिक विषयों में सुख-बुद्धि हो, वे ही ‘कुसंग’ हैं, और जिनसे भगवत्प्राप्ति में सहायता मिले, वे ही ‘सत्संग’ कहलाते हैं।

एकमात्र ‘सत्‌’ वस्तु परमात्मा का अंश होने के कारण जीवात्मा भी स्वरूप से सत्‌ ही है। सांसारिक विषय अनित्य और क्षण-भंगुर हैं, अतः वे सब ‘असत्‌’ हैं तथा सत्ता न होने पर भी उनका तात्कालिक उपयोग-मात्र होता है। उदाहरणार्थ – दर्पण में दीखने वाले प्रतिबिम्ब का कोई अस्तित्व नहीं होता, किन्तु वह वेष-सज्जा के लिए उपयोगी ही होता है। इसी प्रकार सांसारिक विषयों का कोई अस्तित्व नहीं है, तथापि उनकी प्रतीति लोकसंग्रह के लिये उपयोगी है। किन्तु सुख-बुद्धि से उनका ग्रहण सर्वनाश का कारण है।

सत्संग – तत्त्वज्ञानी महात्माओं के वचनों और विचारों का श्रवण करके उन पर मनन करना चाहिए। मनन इतना होना चाहिए कि किसी दूसरे को भी उनसे अवगत करा सकें। इस श्रवण और मनन के बाद जीवन के हर पहलू में उनका उपयोग अर्थात्‌ ‘निदिध्यासन’ करना चाहिए। यह श्रवण, मनन, निदिध्यासन एवं दूसरों से परस्पर उनका वर्णन करने से ही ‘सत्संग’ होता है। मात्र शरीर को महात्माजनों के सम्पर्क में बैठाना ‘सत्संग’ नहीं है।

कुसंग – यह नियम है कि जिस पल सत्संग न हो, वही कुसंग है। उदाहरणार्थ – कहीं पहुँचने के लिये यदि वहाँ तक जाने वाली सड़क पर मनुष्य चलता रहे, तो वहाँ पहुँच सकता है। पर यदि वह सड़क से उतर जाये, तो सड़क की पटरी पर लगी झाड़ियों अथवा गड़ढों में उलझकर गिर जाता है। केवल व्यक्तियों, वस्तुओं या स्थानों का संयोग ही कुसंग नहीं है, अपितु भावों, विचारों आदि अन्य निमित्तों से भी कुसंग होता है। अतः भगवत्प्राप्ति की सड़क पर चलते रहना ही सत्संग है।

निष्कर्ष – सारांश यह है कि यदि निरन्तर सत्संग होता रहे, तो कुसंग का त्याग अपने आप होगा, उसके लिए अलग से कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती है। ऊपर कहे गये ‘संग’ के निमित्तों (भावों, विचारों आदि) का उपयोग भगवान्‌, धर्मग्रन्थ अथवा महात्माजनों की आज्ञानुसार करने से मनुष्य नित्य सत्संग में रह सकता है।

Download Pdf

 

राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥