भगवान् अनन्त कृपा, प्रेम और आनन्द के धाम हैं – और उनकी ओर बढ़ने की चेष्टा हम सब अपने-अपने स्तर पर कर ही रहे हैं। परन्तु इस मार्ग पर हम अपनी प्रगति का आकलन कैसे करें? यदि इसका मापदण्ड हम याद रखें, तब आने वाले वर्ष का सदुपयोग सर्वोत्तम रीति से कर सकेंगे।
‘श्रीमद्भगवद्गीता : जीवन विज्ञान’ के अध्याय २, श्लोक ६५ की व्याख्या में पूज्य ‘नानाजी’ (श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा जी) ने कहा है ‘जब मन में सदैव प्रसन्नता की वृत्ति हिलोर लेती रहती है, तो फ़िर ऐसे व्यक्ति को संसार का कोई भी दुःख स्पर्श नहीं कर सकता है। जब मन किसी भी दुःख से संलग्न नहीं होता, तो बुद्धि की चंचलता समाप्त हो जाती है। उसमें ऐसी शाक्ति हो जाती है कि वह भली- भाँति स्थिर हो जाए। वास्तव में अंतःकरण की प्रसन्नता एक ऐसा मापदण्ड है जिससे प्रत्येक साधक अपनी स्थिति को नाप सकता हैं।’
सामान्य जीवन में हमारा चित्त प्राय: प्रसन्न ही रहता है। किन्तु जब कोई परिस्थिति अथवा दूसरों का व्यवहार हमें प्रतिकूल लगे, क्या तब भी हम प्रसन्नचित्त रह पाते हैं? इसी से हम अपनी वास्तविक स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि हर पल चित्त को प्रसन्न कैसे रखा जाय? इसका उपाय पूज्य नानाजी ने अत्यंत प्रेम से ‘आनन्द यात्रा – प्रथम पुष्प’ के लेख ‘पाँच आनन्द बिन्दु’ में दिया है, जिसका सार है –
- हमारे साथ ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता जो हमने भूतकाल में ठीक समझकर दूसरों के प्रति न किया हो।
- हमारे ही कर्मों के ये फल जिस व्यवस्था से प्राप्त होते हैं, वह भगवान् का केवल विधान ही नहीं, अपितु मंगलमय विधान है।
- वर्तमान समय और परिस्थितियों का सदुपयोग भक्ति का साधन दृढ़ करने में ही करें। इससे प्रारब्ध का वेग समाप्त होता है और भगवान् का नया विधान लागू होता है। इस प्रकार भगवान् की ओर उन्मुख होने पर हमें हर प्राप्त परिस्थिति और व्यवहार में उनकी मंगलमयता का स्पष्ट अनुभव होगा, और तभी हमारा चित्त हर पल प्रसन्न रह सकेगा।
भगवान् की मंगलमयता पर अपना विश्वास दृढ़ करने के लिए परम पूज्य श्रीराधाबाबा के वचन हैं ‘अनन्त-कृपासागर प्रभु का विधान दया से रहित हो ही नहीं सकता। हमारी बुद्धि इसे समझ पाये, ऐसा भले ही नहीं हो, क्योंकि भगवान् अपनी प्रत्येक क्रिया का हेतु हमपर प्रकट ही कर दें, यह आवश्यक नहीं है। … यह इसी प्रकार है जैसे अनन्त समुद्र में तैरती एक छोटी बाल-मछली अपनी माँ से जिज्ञासा करती है – “माँ! लोग कहते हैं; मछलियाँ समुद्र में पैदा होती हैं। वह समुद्र, माँ, कहाँ है? मुझे तो वह दीखता ही नहीं!” …उसी प्रकार, हमारे चतुर्दिक, सब ओर दयामय की अपार, अनंत दया के रहते हुए भी हम उस दया का अनुभव नहीं कर पाते ।… हमें तो उनपर श्रद्धा ही रखनी चाहिए, और तनिक भी दुःख न मानकर मंगल ही मंगल, अथाह मंगल, अपार मंगल का ही अनुभव हर विधान में करना चाहिए। … हम अपने भीतर भगवत्कृपा का जो क्षीण-सा भरोसा है, उसे बनाये रखें। … यदि कोई प्राणी उनका नाम ले- लेकर ही उन्हें पुकारता रहे, तो उसे उस दया का परिचय अवश्य, अवश्य ही मिल जाएगा, यह मेरा विश्वास है।”
(‘महाभाव-दिनमणि श्रीराधाबाबा’, द्वितीय खण्ड, तृतीय अध्याय, पत्र सं, ७, श्रीराधामाधव प्रकाशन, बीकानेर)
तो आइये, पूज्य बाबा व पूज्य नानाजी के इन महान् आश्वासनों के आधार पर हम कुछ दृढ़ संकल्प लें –
- आज से ही हम अपनी प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न रहेंगे।
- जब भी लगे कि हम प्रतिकूलता से घिरे हैं, तब अपने को याद दिलायेंगे कि वास्तव में उस बाल-मछली की भाँति हम भी भगवान् के कृपासागर में ही तैर रहे हैं। बस, उस कृपा का अनुभव करने की देर है।
- कृपा अनुभव करने की सामर्थ्य के लिए हम भगवान् का नाम ले-लेकर उन्हें निरन्तर पुकारते रहेंगे।
आने वाला नववर्ष हमें यह स्वर्णिम अवसर दे रहा है कि यदि हम पूर्ण सच्चाई और तत्परता से इस दिशा में चेष्टा करेंगे, तब अवश्य ही भगवान् की प्रेम-भरी संभाल हमें हर पल अनुभव होगी, आनन्दित करती रहेगी।
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