(सन्देश-११) – अगस्त २०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन –
(गत निवेदन के आगे)
(आधार – परम पूज्य “बाबूजी” द्वारा लिखित “श्री भगवन्नाम-चिन्तन” छ्ठा सस्करण-पृष्ठ ३९)
६. नाम का सहारा लेकर पाप करना – बुद्धि जब पापकर्म में लिप्त होती है तो कभी-कभी मनुष्य यह सोचकर पाप करता रहता है कि बाद में नाम-जप से सब ठीक हो जायेगा। ऐसा सोचना भी एक नया पाप बन जाता है जो वज्र-लेप हो जाता है। उसके लिये और अधिक नाम परायण होकर नाम-जप करना पड़ता है। अतः नाम-जप से पहले मनुष्य को यह निश्चय कर लेना चाहिए कि वह जान-बूझकर पाप नहीं करेगा। साथ ही इस निश्चय की पुष्टि के लिये निरन्तर नाम-जप द्वारा भगवान् का सहारा लेना चाहिए। इसके लिये सर्वप्रथम कुसंग का त्याग कर देना चाहिये, चाहे ऐसा करने में कोई सांसारिक हानि होती दीखती हो। यह विश्वास दूढ़ करना चाहिये, कि नाम-जप करने से भगवान् सब प्रकार से मेरी रक्षा करेंगे।
७. धर्म, व्रत, दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना करना – वास्तव में नाम और नामी अर्थात् भगवान् एक ही हैं। नाम भी उतना ही चेतन है जितने भगवान्। धर्म, व्रत, दान और यज्ञादि से बुद्धि शीघ्र शुद्ध हो जाती है तथा मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, कुसंग आदि अकल्याणकारी कर्मों से बचा रहता है। यद्यपि निरन्तर नाम-जप भी बुद्धि को शुद्ध करता है तथापि उपरोक्त कर्मों से बुद्धि शुद्ध हो जाने पर नाम-अपराध नहीं होते, तथा नाम की शक्ति भगवत्प्राप्ति एवं भगवद्प्रेम की प्राप्ति सीधे करा देती है।
८. अश्रद्धालु, हरिविमुख और सुनना न चाहने वाले को नाम का उपदेश करना – नाम का उपदेश उन्हीं को करना चाहिये जो अपने से प्रेम का कोई सम्बन्ध मानते हों। यदि निकट पारिवारिक सम्बन्धी अश्रद्धालु आदि हों तो सर्वप्रथम उन्हें भगवान् पर विश्वास करने के लिये प्रेरित करना चाहिये, तथा भगवद्भक्ति की आवश्यकता समझानी चाहिये। यदि वे वास्तव में अपने से प्रेम का कोई सम्बन्ध मानते हैं, तो अवश्य ही उन पर इस प्रेरणा का प्रभाव होगा।
९. नाम का माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना – यदि अपने को कोई नाम का माहात्मय सुनाये तो उसे ध्यान देकर सुनना चाहिये। नाम के माहात्म्य को सुनने मात्र से मनुष्य पापों से, कुसंग से व अन्य अनर्थों से अपनी रक्षा करता है। कारण यह है कि भगवान् का नाम और भगवान् दो पृथक सत्तायें नहीं हैं। नाम का माहात्म्य मन लगाकर सुनने से वही लाभ होता है जो नाम-जप से। उदाहरणार्थ – रामचरितमानस के बालकाण्ड के आरम्भ में नाम-महिमा की विशद व्याख्या की गयी है। उसे बार-बार पढ़कर या सुनकर मन में धारण करना चाहिये और ऐसा मानना चाहिये कि नाम का माहात्म्य सुनना अत्यन्त सौभाग्य और भगवत्कृपा का प्रमाण है।
१०. ‘मैं’, ‘मेरे’ तथा ‘भोगादि’ विषयों में लगे रहना – यदि मन में भगवद्भक्ति नहीं है तो नाम-जप करने पर भी अधिकतर कर्म ‘मैं’ (अहंकार), ‘मेरे’ (ममता) तथा ‘भोगादि’ (पाप) के प्रेरित विषयों से युक्त होते हैं। ऐसे स्वार्थ एवं सुख-भोग प्रेरित कर्म करना भी नाम-अपराध है।
इन सभी नाम-अपराधों से बचने का उपाय भी और अधिक नाम-जप करना ही है। इसके लिये नाम-अपराधों से बचने की चेष्टा करनी चाहिये और भगवान् से कातर प्रार्थना करनी चाहिये कि वे इनसे बचने की सामर्थ्य प्रदान करें (‘आस्तिकता की आधारशिलाएँ’, पृ०102)। साथ ही, अपने दृढ़ निश्चय से जहाँ तक हो सके सतत नाम-जप करना चाहिये (गीता 8/7) | भगवत्कृपा से ऐसे भक्त की सब कठिनाईयाँ दूर हो जाती हैं।
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