नाम-अपराध-१

(सन्देश-१०) – जुलाई २०११ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन –

 

(आधार-परम पूज्य “बाबूजी” द्वारा लिखित “श्री भगवन्नाग-चिन्तन” छठा सस्करण-प्रष्ठ ३९)

 

वैसे तो भगवान्‌ का नाम जैसे भी लिया जाये, उसका फल अवश्य होता है, किन्तु अश्रद्धा, अविश्वास और सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के कारण उसके वास्तविक फल की प्राप्ति में देर हो जाती है। देरी होने से नाम-जप में और अश्रद्धा हो जाती है। इन तीन कारणों से दस नाम-अपराध हो जाते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है –

१.  सत्पुरुषों की निन्दा – सत्पुरुष वे हैं जिनसे सतू-वस्तु अर्थात्‌ परमात्मा का बोध होता है। परमात्मा और उनका कोई भी नाम दो पृथक वस्तुएँ नहीं हैं। कलियुगी वातावरण में परमात्मा पर आस्था होना अत्यन्त कम हो गया है। भौतिक सम्पत्ति का महत्त्व जीवन में बढ़ जाने से परमात्मा की उपेक्षा होती है और पत्र-पत्रिकायें, मीडिया, भगवत्‌-विरोधी साहित्य, भाषणों इत्यादि की प्रचुरता हो गयी है। इससे जाने-अनजाने सत्पुरुषों की निन्दा की ओर ध्यान आकर्षित हो जाता है। इसके होते भगवन्नाम-जप पर अश्रद्धा और अविश्वास का होना स्वाभाविक ही है। यदि जप हो भी, तो वह भी सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिये ही होता है। इससे नाम अपराध बन जाता है।

२. नामो में भेदभाव – वेद, पुराण आदि शास्त्रों में भगवान्‌ के अनेक नामों का विवरण मिलता है। वे सब एक ही सत्‌-तत्त्व की ओर संकेत करते हैं। जिसको जो भी नाम रुचिकर लगता हो, उसको वही नाम एक ही फल की प्राप्ति कराता है। उन नामों में भेदभाव करना एक नाम-अपराध है। जैसे, किसी को शिव-मन्त्र से, किसी को राम-मन्त्र से, किसी को देवी-मन्त्र आदि से चित्त की शान्ति प्राप्त होती है, तो वह उसी को सही समझता है। यह समझना तो ठीक है किन्तु अन्य नाम को हीन समझना नाम-अपराध है।

३. गुरु का अपमान – जिन गुरुदेव से नाम-जप की ओर प्रेरणा होती है, उनमें दोष-दर्शन करने से और अन्यों से उसका वर्णन करने से गुरु का अपमान होता है। इससे नाम-जप का महत्त्व क्षीण हो जाता है। फिर उस नाम की ओर से अश्रद्धा हो जाती है। इसलिये गुरु के लिये किसी भी प्रकार के अपमान का भाव मन में आना अथवा उनमें दोष-दर्शन होना गम्भीर नाम-अपराध है।

४. शास्त्र निन्दा – वेद, पुराण, उपनिषद्‌ आदि अनेक प्रकार के शास्त्र हैं। इन सभी शास्त्रों का संकेत एक परम तत्त्व परमात्मा की ओर ही होता है। किन्तु मनुष्यों की रुचियाँ भिन्‍न-भिन्‍न होने के कारण बुद्धि की पकड़ भी भिन्‍न-भिन्‍न होती है। किसी को कोई शास्त्र अधिक समझ में आता है या मन से अधिक स्वीकार होता है और किसी को कोई अन्य शास्त्र। जैसे – किसी की रुचि श्रीमदूभगवद्‌गीता में होती है, किसी की श्रीमद्भागवत्‌महापुराण में होती है, किसी की श्रीरामचरितमानस में होती है, आदि-आदि। यह रुचि होना तो स्वाभाविक है किन्तु एक शास्त्र रुचिकर होने के कारण अन्य किसी शास्त्र की निन्दा करना नाम-अपराध होता है।

५. हरि नाम में अर्थवाद की कल्पना होना – सभी शास्त्रों में भगवन्नाम-जप को भगवत्प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया गया है। अन्य सब साधन अन्तःकरण को पवित्र करते हैं, (गीता १८/५) जिससे नाम-जप में शीघ्र प्रगति होती है। इस कारण कुछ लोगों के मन में यह भ्रमपूर्ण भावना होती है कि “कदाचित्‌ नाम-जप के महत्त्व का उल्लेख केवल स्तुति मात्र है, पर वास्तव में नाम लेने मात्र से भगवत्प्राप्ति भला कैसे हो सकती है?” यही अर्थवाद कहलाता है। यह भी एक नाम-अपराध है।

(क्रमशः ………. )

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥