दीपावली संदेश २०२४
हृदय में भगवान् की ज्योति जगा लें

दीपावली पर्व का उज्ज्वल सौंदर्य हमें स्मरण दिलाता है कि प्रभु की स्वाभाविक रुचि प्रकाश और उत्फुल्लता के भावों में है। इस पर्व पर वे हमें प्रेरित करते हैं कि हम अपने हृदय को इन्हीं भावों से शृंगारित करें और इनके बाधक तत्त्वों को दृढ़ता से त्याग दें। राग-द्वेष, अहंकार-आसक्ति, भय-क्रोध आदि ही वे बाधक तत्त्व हैं जिनसे जीवन में विषाद, चिंता, निरुत्साह और नकारात्मकता हम पर हावी हो जाते हैं।

इनसे मुक्त होने के लिए परम पूज्य श्री राधा बाबा ने एक सुंदर उपमा प्रस्तुत की है। गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘सत्संग-सुधा’ के लेख ‘भगवान् की ज्योति जगा लें’ में वे कहते हैं कि लौकिक दीप देखने के लिए पाँच चीज़ें आवश्यक हैं – दीपक, स्नेह (घी या तेल), स्नेह में सनी बत्ती, किसी जलते दीप से बत्ती का संपर्क और उस ज्योति को देखने वाली आँखें। इसी प्रकार, प्रभु के आलोक के दर्शन के लिए भी निम्नांकित पाँच आवश्यकताएँ हैं –

(१) सबसे पहले प्रभु की ज्योति अनुभव करने के लिए श्रद्धा की आँखें होनी चाहिये। भगवान्‌ सर्वसमर्थ हैं एवं करुणा-सिंधु हैं – इसलिए न तो किसी अन्य मनुष्य पर निर्भर होना है, न अपने पुरुषार्थ (अहंकार) पर, अपितु केवल प्रभु के मंगलमय चरणों का आश्रय रखना है। बुद्धि में भगवान्‌ की सत्ता पर ऐसा दृढ़ निश्चय होना ही है श्रद्धा की निर्मल आँख।

(२) जिस प्रकार उलटाये हुए दीपक में तेल भरना हो तो उसे पहले सीधा करना होता है, उसी प्रकार इंद्रियों को विषयों की ओर से लौटाकर उनका मुख प्रभु की ओर करना होगा। संसार से प्राप्त होने वाले सभी सुख – चाहे इंद्रियों के विषय- भोग हों अथवा मान-सम्मान की सूक्ष्म इच्छा, इन सभी को अल्पकालिक जानकर सुख के स्रोत भगवान्‌ की ओर इंद्रियों को मोड़ना होगा।

(३) इंद्रिय-रूपी दीपकों का भगवान्‌ की ओर उन्मुख होते ही इंद्रियों का आकर्षण प्रभु की ओर क्षण-क्षण में बढ़ने लगेगा और यह आकर्षण फिर प्रेम की स्निग्धता में परिणत होकर उन दीपकों में एकत्र होने लगेगा।

(४) इंद्रियों के साथ मन के जुड़े रहने से फिर मन की वृत्तियाँ भी एकाग्र होकर एक भगवान्‌ की ओर उन्मुख हो जाती हैं, मानो बिखरे हुए तंतु जुड़कर बत्ती के रूप में परिणत हो गये हों। इस प्रकार इंद्रियों की भगवत्‌-प्रेम की स्निग्धता मन-रूपी बत्ती को स्निग्ध कर देती है, भगवान्‌ के प्रति उस मन को राग-युक्त बना देती है।

(५) इस प्रकार जब बुद्धि में श्रद्धा-युक्त निश्चय हो और मन-इंद्रियों में केवल भगवान्‌ के प्रति राग हो, तब भगवान्‌ स्वयं ही संत का रूप धारण करके हमें ढूँढने आते हैं। संत हमें हृदय से लगा लेते हैं और अपने हृदय में जल रही प्रभु- ज्योति से हमारी बत्ती आलोकित कर देते हैं।

इस प्रकार के शास्त्र और संत वचनों को जीवन में धारण करने के लिए पूज्य नानाजी (श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा) ने “श्रीमद्भगवद्गीता : जीवन विज्ञान”, अध्याय १२, श्लोक २० की व्याख्या में दो महत्त्वपूर्ण चरण बताये हैं –

(१) सर्वप्रथम, उन वचनों को ध्यान से बारंबार पढ़कर मन में यह विश्वास दृढ़ करें कि इनको धारण करने में ही मेरा कल्याण है।

(२) यदि इन वचनों का पालन अव्यावहारिक या असंभव लगे, तो इसका कारण अपने मन की दुर्बलता जानकर भगवान्‌ से उस दुर्बलता को हटाने की कातर प्रार्थना करें।

तो आइए, परम पूज्य श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाईजी’, परम पूज्य श्री राधा बाबा एवं परम पूज्य नानाजी के चरणों का आश्रय लेकर इस दीपावली हम हृदय में भगवान्‌ की ज्योति जगाने के लिए कटिबद्ध हो जायें और अपने स्वजनों को भी यही प्रेरणा दें।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥