नववर्ष २०२३ – एक स्वर्णिम अवसर

भगवान्‌ अनन्त कृपा, प्रेम और आनन्द के धाम हैं – और उनकी ओर बढ़ने की चेष्टा हम सब अपने-अपने स्तर पर कर ही रहे हैं। परन्तु इस मार्ग पर हम अपनी प्रगति का आकलन कैसे करें? यदि इसका मापदण्ड हम याद रखें, तब आने वाले वर्ष का सदुपयोग सर्वोत्तम रीति से कर सकेंगे।

‘श्रीमद्भगवद्गीता : जीवन विज्ञान’ के अध्याय २, श्लोक ६५ की व्याख्या में पूज्य ‘नानाजी’ (श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा जी) ने कहा है ‘जब मन में सदैव प्रसन्नता की वृत्ति हिलोर लेती रहती है, तो फ़िर ऐसे व्यक्ति को संसार का कोई भी दुःख स्पर्श नहीं कर सकता है। जब मन किसी भी दुःख से संलग्न नहीं होता, तो बुद्धि की चंचलता समाप्त हो जाती है। उसमें ऐसी शाक्ति हो जाती है कि वह भली- भाँति स्थिर हो जाए। वास्तव में अंतःकरण की प्रसन्नता एक ऐसा मापदण्ड है जिससे प्रत्येक साधक अपनी स्थिति को नाप सकता हैं।’

सामान्य जीवन में हमारा चित्त प्राय: प्रसन्न ही रहता है। किन्तु जब कोई परिस्थिति अथवा दूसरों का व्यवहार हमें प्रतिकूल लगे, क्या तब भी हम प्रसन्नचित्त रह पाते हैं? इसी से हम अपनी वास्तविक स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं।

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि हर पल चित्त को प्रसन्न कैसे रखा जाय? इसका उपाय पूज्य नानाजी ने अत्यंत प्रेम से ‘आनन्द यात्रा – प्रथम पुष्प’ के लेख ‘पाँच आनन्द बिन्दु’ में दिया है, जिसका सार है –

  • हमारे साथ ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता जो हमने भूतकाल में ठीक समझकर दूसरों के प्रति न किया हो।
  • हमारे ही कर्मों के ये फल जिस व्यवस्था से प्राप्त होते हैं, वह भगवान्‌ का केवल विधान ही नहीं, अपितु मंगलमय विधान है।
  • वर्तमान समय और परिस्थितियों का सदुपयोग भक्ति का साधन दृढ़ करने में ही करें। इससे प्रारब्ध का वेग समाप्त होता है और भगवान्‌ का नया विधान लागू होता है। इस प्रकार भगवान्‌ की ओर उन्मुख होने पर हमें हर प्राप्त परिस्थिति और व्यवहार में उनकी मंगलमयता का स्पष्ट अनुभव होगा, और तभी हमारा चित्त हर पल प्रसन्न रह सकेगा।

भगवान्‌ की मंगलमयता पर अपना विश्वास दृढ़ करने के लिए परम पूज्य श्रीराधाबाबा के वचन हैं ‘अनन्त-कृपासागर प्रभु का विधान दया से रहित हो ही नहीं सकता। हमारी बुद्धि इसे समझ पाये, ऐसा भले ही नहीं हो, क्योंकि भगवान्‌ अपनी प्रत्येक क्रिया का हेतु हमपर प्रकट ही कर दें, यह आवश्यक नहीं है। … यह इसी प्रकार है जैसे अनन्त समुद्र में तैरती एक छोटी बाल-मछली अपनी माँ से जिज्ञासा करती है – “माँ! लोग कहते हैं; मछलियाँ समुद्र में पैदा होती हैं। वह समुद्र, माँ, कहाँ है? मुझे तो वह दीखता ही नहीं!” …उसी प्रकार, हमारे चतुर्दिक, सब ओर दयामय की अपार, अनंत दया के रहते हुए भी हम उस दया का अनुभव नहीं कर पाते ।… हमें तो उनपर श्रद्धा ही रखनी चाहिए, और तनिक भी दुःख न मानकर मंगल ही मंगल, अथाह मंगल, अपार मंगल का ही अनुभव हर विधान में करना चाहिए। … हम अपने भीतर भगवत्कृपा का जो क्षीण-सा भरोसा है, उसे बनाये रखें। … यदि कोई प्राणी उनका नाम ले- लेकर ही उन्हें पुकारता रहे, तो उसे उस दया का परिचय अवश्य, अवश्य ही मिल जाएगा, यह मेरा विश्वास है।”

(‘महाभाव-दिनमणि श्रीराधाबाबा’, द्वितीय खण्ड, तृतीय अध्याय, पत्र सं, ७, श्रीराधामाधव प्रकाशन, बीकानेर)

तो आइये, पूज्य बाबा व पूज्य नानाजी के इन महान्‌ आश्वासनों के आधार पर हम कुछ दृढ़ संकल्प लें –

  • आज से ही हम अपनी प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न रहेंगे।
  • जब भी लगे कि हम प्रतिकूलता से घिरे हैं, तब अपने को याद दिलायेंगे कि वास्तव में उस बाल-मछली की भाँति हम भी भगवान्‌ के कृपासागर में ही तैर रहे हैं। बस, उस कृपा का अनुभव करने की देर है।
  • कृपा अनुभव करने की सामर्थ्य के लिए हम भगवान्‌ का नाम ले-लेकर उन्हें निरन्तर पुकारते रहेंगे।

आने वाला नववर्ष हमें यह स्वर्णिम अवसर दे रहा है कि यदि हम पूर्ण सच्चाई और तत्परता से इस दिशा में चेष्टा करेंगे, तब अवश्य ही भगवान्‌ की प्रेम-भरी संभाल हमें हर पल अनुभव होगी, आनन्दित करती रहेगी।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥