यज्ञ-शेष

(सन्देश १८) – नवम्बर 2011 का द्वितीय पाक्षिक निवेदन –

 

श्रीमद्‌भगवद्‌गीता में दो स्थानों पर यज्ञ-शेष का उल्लेख है –

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। भुज्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌।।

अर्थात्‌ ‘यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं!’ ।। (३/१३ )

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् | नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम ||

अर्थात्‌ ‘हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। और यज्ञ-रहित पुरुष के लिये तो यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा ?’।। (४/३१)

ये दोनों श्लोक मनुष्य जीवन के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। कुछ न कुछ कर्म तो सभी लोग करते हैं किन्तु वह व्यक्ति ही बुद्धिमान्‌ है जो उन कर्मों के फल से बँधता नहीं है, अपितु मुक्त होकर जो भगवान्‌ के असीम स्वरूप से एकरूप हो जाता है। सभी न्याय-संगत और धर्म-संगत कर्मों को लगाव-रहित तथा भगवान्‌ की शक्ति से समतापूर्वक, केवल भगवान्‌ की प्रीति के लिये, और संसार के रूप में व्यक्त हुए भगवान्‌ को ही उन कर्मों का फल समर्पित कर देने से, वे सब कर्म “यज्ञ’-रूप हो जाते हैं। इसका उदाहरण निम्नलिखित है –

एक व्यक्ति बैंक में कैशियर है। प्रतिदिन कार्य-आरम्भ से पहले, बैंक से उसे करोड़ों रूपया दिया जाता है। उस धन का उपयोग वह केवल बैंक के ग्राहकों को बिना किसी भेदभाव के नियमपूर्वक देने के लिये करता है। स्थूल रूप से उसका यही कर्म “यज्ञ” कहा जा सकता है। परिणामस्वरूप उसे बैंक से वेतन मिलता है, जो ग्राहकों के लिये दी गयी कुल धनराशि का एक अत्यन्त क्षुद्र अंश है । ठीक-ठीक काम करने पर कालान्तर में उसे बोनस, पारितोषिक (वेतन-वृद्धि), कार्य करने की अधिक सुविधाएँ, पदोन्‍नति आदि मिलते हैं। स्थूल रूप से हम इसे यज्ञ-शेष अर्थात्‌ बैंक द्वारा दिया गया “प्रसाद” (प्रसन्‍नता) समझ सकते हैं। इसके विपरीत, वितरण के लिये दिये गये धन में हेर-फेर करने से वह घोर दण्ड का भागी होता है, जिसे गीता – ४/३१ में मनुष्य लोक में या परलोक में सुखदायक न होना बताया गया है।

गीता – ३/१३ में प्रयुक्त ‘ये पचन्त्यात्मकारणात्‌’ पद से केवल भोजन पकाने का अर्थ ही नहीं ग्रहण करना चाहिये, अपितु इस उपलक्षण से इन्द्रियों के द्वारा भोगे जाने वाले समस्त भोगों को समझना चाहिये। शरीर और इन्द्रियों से जितनी भी क्रियायें होती हैं और जिनका फल केवल अपने या अपनों के द्वारा सुख-भोग या शौकीनी के लिये ही ग्रहण किया जाता है, उन सभी कर्मफलों के भोग को पापी लोगों द्वारा पाप को ही खाया जाने वाला समझना चाहिये। अपने और अपनों के शरीर-पोषण के लिये केवल उतना ही उपयोग किया जाना चाहिये जितना भगवान्‌ का काम करने के लिये आवश्यक हो।

मनुष्य-योनि में जन्म प्राप्त होने का यह कितना महान्‌ सौभाग्य है कि मनुष्य यदि चाहे तो केवल यज्ञ-शेष ग्रहण करने से उसका यह जन्म अन्तिम जन्म होकर उसे इसी जन्म में भगवत्प्राप्ति करा देने के लिये पूर्ण रूप से समर्थ है। इसके विपरीत, यह कितना महान दुर्भाग्य होगा यदि वह इसका दुरुपयोग अपने स्वार्थ के लिये करके इसी लोक में भाँति-भाँति के क्लेश भोगता रहे और अपने को भविष्य में आसुरी योनियों में ही गिरने की व्यवस्था कर ले (गीता १६/१९)।

निष्कर्ष – मनुष्य-जन्म में सब विहित कर्मों को यज्ञ-कर्म के रूप में करने की सुविधा भगवान्‌ द्वारा प्रतिक्षण दी जाती है (गीता ५/२९)। भगवान्‌ की भक्ति द्वारा केवल समर्पण-बुद्धि से प्रत्येक कर्म को नाम-जप के साथ करने से यह सुगमतापूर्वक सम्भव हो जाता है (गीता ८/७ तथा ८/१४)।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥