(सन्देश १९) – दिसम्बर 2011 का प्रथम पाक्षिक निवेदन –
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २, श्लोक सं० ४० तथा श्लोक सं० ४४ में व्यावसायात्मिका-बुद्धि का उल्लेख है। ‘अवसाय’ का अर्थ ‘दृढ़-निश्चय’ है। यह दृढ़-निश्चय जब विशेष रूप से किसी कल्याणकारी तत्त्व की प्राप्ति के लिये होता है, तो बुद्धि की इस वृत्ति को “व्यवसायात्मिका-बुद्धि! कहा जाता है। साधारण मनुष्यों की बुद्धि जीवन-यापन के साधन में ही व्यस्त रहती है। अतः सामान्यतया “व्यवसाय” का अर्थ उस साधन को ही समझा जाता है। किन्तु विवेकशील मनुष्यों की बुद्धि स्वाध्याय, सत्संग, संत-कृपा तथा भगवत्कृपा से प्रेरित विचार द्वारा इसी जीवन में भगवत्प्राप्ति के लिये कटिबद्ध हो जाती है। यही बुद्धि वास्तव में व्यवसायात्मिका-बुद्धि है।
कर्म-योग (तथा भक्ति-योग) के साधन का आरम्भ इस व्यवसायात्मिका-बुद्धि से ही होता है। इस प्रकार दृढ़-निश्चय से परमात्मा में बुद्धि लगाना ही “बुद्धि-योग” है (२/३९)। इसके अन्तर्गत दैनिक जीवन में शरीर, मन व वाणी द्वारा किये गये प्रत्येक छोटे-बड़े कर्म में भगवत्प्राप्ति के ही लक्ष्य पर दृष्टि केन्द्रित करना आवश्यक है। ज्ञान-योग के साधन में आरम्भ से ही साधक परमात्म-तत्त्व में स्थित होता है, और फिर उसकी बुद्धि स्वयं ही व्यवसायात्मिका हो जाती है। अतः कर्मयोग के प्रकरण में इस सम्बन्ध में भगवान् कहते हैं –
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ।।
अर्थात् ‘हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं! ।। (२/४१)
व्यवसायात्मिका-बुद्धि को भगवान् ने ‘एक’ ही कहा है। कारण यह है कि बुद्धि को व्यवसायात्मिका तभी बनाया जा सकता है, जब धन-सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा, दाम्पत्य-सुख आदि क्षणभंगुर सांसारिक विषयों की प्राप्ति के अनेक प्रयत्नों की ओर से उसे हटा लिया जाये (५/२२)। इसी बात को गीता के इसी अध्याय २ के श्लोक सं० ४२ से ४४ तक विस्तार से बताते हुए कहा गया है –
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् । व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते ।।
अर्थात् ‘भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त जिन (अविवेकीजनों) की चेतना का उस आसक्ति द्वारा अपहरण हो गया है; उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका-बुद्धि नहीं होती ।। (२/४४)
इससे यह स्पष्ट है कि उपरोक्त भोग और ऐश्वर्य के विषयों की प्राप्ति के लिये अविवेकीजनों की क्रियाएँ अनन्त भेदों तथा शाखाओं वाली होती हैं। उदाहरणार्थ – स्वादिष्ट भोजन, वस्त्राभूषण, पद-प्रतिष्ठा आदि विषय भी अनेक प्रकार के होते हैं। इनकी प्राप्ति में ही ऐसे मनुष्यों का अधिकांश जीवन नष्ट हो जाता है, तथा वे मनुष्य जीवन के वास्तविक लक्ष्य भगवत्प्राप्ति से अपने को वंचित कर लेते हैं। जब बुद्धि को भगवत्प्राप्ति के एकमात्र लक्ष्य की ओर दृढ़-निश्चय से प्रेरित कर दिया जाता है तब यज्ञों अर्थात् शास्त्रानुमोदित कर्मों के उत्साहपूर्वक सम्पादन से मनुष्य को आवश्यक भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति अपने आप होती है (गीता- ३/१० व ११/३३)।
उदाहरणार्थ – एक बीज को बोने से तथा उसका पोषण करने एवं सींचने से अनेक शाखाओं वाले वृक्ष तथा अनेक फलों की प्राप्ति अपने आप होती है। एक-एक फल को अलग से सिंचित करने का प्रयास निरर्थक और त्याज्य है। इसी प्रकार उपरोक्त सांसारिक विषयों की प्राप्ति के लिये किये जाने वाले बहुल कर्मों का त्याग करके बुद्धि को केवल भगवत्प्राप्ति के लक्ष्य में लगानी चाहिये। सम्पूर्ण जगत् परमात्मा से ही उत्पन्न हुआ है (गीता- १०/८), इसलिये बुद्धि को भगवान् में लगाने से सभी आवश्यक सांसारिक विषयों की प्राप्ति अपने आप हो जाती है। ये विषय अनेक हैं किन्तु उनके त्याग का निश्चय एक ही है। अतः श्लोक सं० ४१ में व्यवसायात्मिका-बुद्धि को ‘एक’ ही बताया गया है।
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