(सन्देश २३) – फरवरी २०१२ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन –
सभी शास्त्रों एवं महात्माजनों का यही मत है कि मनुष्य-जीवन की सार्थकता तभी है जब उत्साहपूर्वक और प्रफुल्लचित्त से उसका उपयोग भ्गवत्प्राप्ति के लिये ही हो। भगवत्प्राप्ति में मनुष्य-मात्र का अधिकार है और परम दयालु, करुणासागर प्रभु इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिये जीव को मनुष्य शरीर प्रदान करते हैं (सन्देश १)। प्रचलित भ्रमपूर्ण सांसारिक मान्यताएँ साधनारत मनुष्य के इस प्रयास में कभी-कभी बाधाएँ उपस्थित कर देती हैं। इन बाधाओं का मूल उन कामनाओं में होता है जिनकी पूर्ति से मनुष्य यह आशा करता है कि उसके जीवन में धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान एवं पद-प्रतिष्ठा तथा दाम्पत्य-सुख की प्राप्ति इन से होगी। किन्तु यदि साधक की दृष्टि में अपना लक्ष्य हर समय स्पष्ट रहे तो इन बाधाओं का निराकरण करने की सामर्थ्य लक्ष्य-प्राप्ति की उत्कट इच्छा स्वयं प्राप्त करा देती है। ऐसा होने पर साधक दुगुने उत्साह एवं प्रफुल्लता से योग-साधन में लग जाता है।
साधन करने में कर्म-योग सबसे श्रेष्ठ है (गीता ५/२, ३ व ६)। कर्म-योग को भक्ति का आधार मिलने पर भगवत्कृपा पग-पग पर उसी प्रकार सहायता देती है जिस प्रकार चौराहे पर लगी हरी और लाल बत्तियाँ यात्री की यात्रा को सब प्रकार से सुविधा प्रदान करती हैं। इसलिये गृहस्थाश्रम में रहते हुए कर्म-योग का साधन निरापद एवं सबसे सुगम है।
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विशेष – इस निवेदन के साथ पाक्षिक-सन्देशों की इस श्रृंखला को समाप्त किया जा रहा है। पूज्य नानाजी का निवेदन है कि इन सन्देशों का बारम्बार स्वाध्याय करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके अन्तर्गत इन्हें केवल पढ़ें भर नहीं, अपितु यथासम्भव जीवन में धारण करने की पूरी चेष्टा करें। इन बिन्दुओं को जीवन में धारण करने के विषय में अथवा साधन में पड़ने वाली कठिनाइयों के विषय में जो भी पत्र प्राप्त होंगे, उनके उत्तर नानाजी हर्षपूर्वक देंगे।
अंत में अत्यन्त प्रेम और परम मंगल की कामना सहित नानाजी ने किन्ही आदरणीय शायर का निम्नलिखित शेर प्रस्तुत किया है –
दिल रख दिया है सामने लाकर खुलूस* से,
अब इसके आगे काम तुम्हारी नजऱ का है।
* निष्कपट भाव
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