उल्लासमय त्यौहार (उत्सव)

(सन्देश-१२) – अगस्त २०११ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन –

 

(आधार – परम पूज्य स्वामी बालकृष्ण दास जी “महाराजश्री” द्वारा रचित “लक्ष्य की ओर” पृ० १८)

 

परम पूज्य महाराजश्री के अनुसार “उत्सव उसका नाम है कि पूर्व से ही रहते हुए, वर्तमान में रहने के स्थायी-भाव से भावित प्रभावित कर दे। उत्सव में ही रहने के सुन्दर भ्रम में पटक दे।” तात्पर्य यह है कि किसी एक दिन उल्लास से रहना उत्सव नहीं है। यह तो पहले से ही तैयारी करते हुए किसी स्थायी-भाव में प्रतिष्ठित होकर उसी भाव में भविष्य के लिये रहना वास्तविक “उत्सव” है। उदाहरणार्थ, किसी विद्यालय में जो वार्षिकोत्सव मनाया जाता है वह केवल उस एक दिन अथवा एक सप्ताह के लिये नहीं होता, वह तो पूर्व के सत्र में किये हुए अध्ययन, खेलकूद, संगीत-शिक्षा आदि में छात्रों को उत्कृष्टता के पुरस्कार देते हुए उन्हें भविष्य के सत्र में उत्साहवर्द्धन के लिये होता है। इसी प्रकार स्थायी निवास के लिये निर्मित होने वाले किसी मकान को छः मास पूर्व से ईंट पर ईंट रखते हुए बनाया जाता है। मकान बन जाने पर फिर उसमें स्थायी रूप से रहा जाता है। फिर मकान बनने से पूर्व की कष्टप्रद स्थिति में वापिस नहीं जाया जाता।

इसी प्रकार मनुष्य जीवन के एकमात्र लक्ष्य-भगवत्प्राप्ति (निवेदन संख्या १) को अपना उद्देश्य रखते हुए प्रत्येक त्यौहार को एक पड़ाव मानकर साधन को निष्ठापूर्वक सम्पन्न किया जाना चाहिये। फिर गृहप्रवेश के समारोह के रूप में त्यौहार को मनाना ही उचित है। त्यौहार के दिन अग्निहोत्र से आरम्भ कर नाम-जप के अनुष्ठान (चौंसठ माला), श्रीमद्भगवद्‌गीता, श्रीमद्भागवत्‌ महापुराण अथवा श्रीरामचरितमानस का स्वाध्याय करते हुए सायंकाल को कम से कम एक घंटे का सामूहिक कीर्तन करना चाहिये। इस आयोजन में सभी पारिवारिक सदस्यों तथा घनिष्ठ मित्रों को भी आमंत्रित करना चाहिये। घर को उसी प्रकार सुरुचिपूर्ण रूप से सजाया जाना चाहिये, जैसे विद्यालय के वार्षिकोत्सव के लिये विद्यालय को अथवा गृहप्रवेश के लिये घर को सजाया जाता है। कुरुचिपूर्ण संगीत अथवा नृत्य तथा वायुमण्डल प्रदूषित करने वाले पटाखों आदि का दृढ़तापूर्वक बहिष्कार करना चाहिये।

यह दृढ़ निश्चय करना चाहिये कि उत्सव के बाद आगामी उत्सव की साधन्निष्ठ तैयारी उसी प्रकार करनी है, जैसे एक वार्षिकोत्सव के बाद आगामी सत्र के वार्षिकोत्सव अथवा आगामी वर्ष के लिये निवास को और अधिक सुन्दर बनाया जाता है। उत्सव के बाद पुनः बीते हुए कष्टप्रद जीवन में नहीं जाना है।

इसके विपरीत केवल एक दिन के लिये उत्सव मनाना ऐसा ही है जैसे एक दिन के लिये किसी होटल में एक सजे सजाये कमरे में रहकर पुनः अपने पुराने निवास में लौटना पड़े।

इस वर्ष २२-२२ अगस्त को जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्योत्सव मनाकर आगामी वर्ष के त्यौहारों की श्रृंखला आरम्भ हो गयी है। अब दैनिक अग्निहोत्र, नाम-जप, स्वाध्याय तथा सत्संग, भजन-कीर्तन आदि का नवीन कार्यक्रम तैयार कर प्रत्येक त्यौहार को अत्यधिक उल्लास से साधना दिवस के रूप में उत्साहपूर्वक मनायें। कुछ प्रमुख त्यौहारों के रहस्य पर आनन्द यात्रा के प्रथम पुष्प में प्रकाश डाला जा चुका है। उसका मनन करें एवं ५ सितम्बर को राधाष्टमी से लेकर आगामी जन्माष्टमी तक का कार्यक्रम बनायें। यह याद रखें कि हमारा स्थायी निवास भगवान में है(गीता ९/१८)। अतः यह जीवन रहते ही हमें भगवत्प्राप्ति कर अनन्त आनन्द में रहना है। भगवान्‌ की पूर्ण कृपा हम पर है और वह कृपा ही हमारे कार्यक्रम को सफल बनायेगी।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥