त्रिगुण विज्ञान(३)

जून-२०११ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन-

 

(गत पाक्षिक निवेदन के आगे)

त्रिगुण विज्ञान से भगवत्प्राप्ति 

 

५. मंत्र- “मननात्‌ त्रायते इति मंत्र:/- जो मनन करने से कल्याण करे, वह मंत्र है। इसलिये शास्त्रों में आज्ञा दी गयी है कि जप करते समय उसकी अर्थ-भावना को अवश्य विचार में रखना चाहिये। मंत्र कुछ चुने हुए शब्दों का अत्यन्त संक्षिप्त समूह है। इस पर मनन करने का तात्पर्य है कि मन पूर्ण रूप से उसके अर्थ में रम जाये, तथा आवश्यकता पड़ने पर उसके अर्थ को पूर्ण रूप से किसी अन्य व्यक्ति को भी समझाया जा सके। गुणों के भेद से मंत्र भी अलग-अलग होते हैं। भक्ति, ज्ञान और वैराग्य परख मंत्र सत्त्वगुण की वृद्धि और भगवत्प्राप्ति में सहायक होते हैं। कामनापूर्ति के मंत्र रजोगुण की वृद्धि और फलतः दुःखप्राप्ति में सहायक होते हैं। अनिष्टकारक मन्त्र तमोगुण की वृद्धि और फलतः अनन्तकाल तक अज्ञान और मोह के सहायक होते हैं। सत्त्वगुण की वृद्धि के लिये मंत्र का जप निश्चित संख्या में नियमित रूप से प्रतिदिन किये जाने पर बहुत शीघ्र सफल होता है। किन्तु ऐसा तभी होता है जब उस मंत्र की शक्ति पर पूर्ण रूप से श्रद्धा और विश्वास हो (मई २०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन)। केवल भगवन्नाम का जप किसी भी भाव से करने पर अन्ततः जप करने वाले को भगवान्‌ के सम्मुख कर देता है। उदाहरणार्थ, षोडशाक्षर मंत्र में भगवान्‌ के १६ नामों के अतिरिक्त अन्य कोई प्रार्था आदि नहीं है। इसीलिये इसका जप किसी भी भाव से करने से श्रद्धालु साधक का कल्याण होना निश्चित है।

 

गुणातीत होने पर भगवत्प्राप्ति

वास्तव में किसी भी गुण की प्रधानता होने में उपरोक्त पाँचों तत्त्व केवल सहायक हैं। इनसे सम्बन्धित सात्त्विक आहार (गीता- १७/८), यज्ञ (गीता- १७०१९), तप (गीता- १७/१४,१५,१६ तथा १७), दान (गीता- १७/२०), ज्ञान (गीता- १८/२०), कर्म (गीता- १८/२३), बुद्धि (गीता- १८४३०), धृति (गीता- १८/३३), सुख (गीता- १८/३६,३७) तभी सहायक होते हैं जब कर्ता (गीता- १८/२६) के भाव में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है। उदाहरणार्थ, यदि साधक सत्त्वगुण की प्रधानता चाहता है तो उसमें उपरोक्त सारे तत्त्व सतोगुणी होने पर सहायक होंगे। यदि साधक का भाव रजोगुण या तमोगुण से प्रभावित है तो उपरोक्त तत्त्व सत्त्वगुणी होने पर भी पूरा प्रभाव न रख पायेंगे। यही कारण है कि दीर्घकाल तक सात्त्विक मंत्र का जप करने पर भी मन भगावान्‌ की ओर उतना आकृष्ट नहीं होता। सत्त्वगुण की प्रधानता रहने से साधक में जब गीता १४/२२,२३,२४,२५ में वर्णित लक्षण प्रकट होते हैं, तब भगवत्कृपा उसे गुणातीत बना देती है। किन्तु यदि आरम्भ से ही मनुष्य अव्यभिचारी (unmixed) भक्तियोग का आश्रय ले ले तो वह शीघ्र गुणातीत होकर ब्रह्मभूत हो जाता है (गीता- १४/२६)। गुणातीत होने पर प्रत्येक गुण साधक के आधीन हो जाता है। अपना कोई भी स्वार्थ न रहने के कारण ऐसे साधक को जिस गुण की आवश्यकता होती है, उस समय वह उस गुण का उपयोग कर लेता है। किन्तु वह उस समय स्वयं उस गुण से प्रभावित नहीं होता।

 

विशेष –साधकों से विशेष प्रार्थना है कि गीता के जिन श्लोकों का संकेत त्रिगुण विज्ञान के तीनों निवेदन लेखों में दिया गया है, उनका भली प्रकार अध्ययन अवश्य करें, जिससे सतोगुण की वृद्धि और गुणातीत होने की आवश्यकता स्पष्ट रूप में समझ में आ जाये।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥