जून-२०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन-
गुणों की वृद्धि में सहायक तत्त्वों का विवेचन
मई मास के द्वितीय पाक्षिक निवेदन के प्रस्तर-६ में पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। ये तत्त्व तभी सहायक होते हैं, जब इनकी वृद्धि के लिये मन में उत्कट इच्छा होती है और तदनुसार भगवान् से उनमें वृद्धि के लिये निरन्तर प्रार्थना होती रहती है। सत्त्वगुण की वृद्धि की चेष्टा करने के लिये कुछ सुझाव निम्नांकित हैं, किन्तु ये सुझाव केवल संकेतात्मक (illustrative) हैं। इन्हें सर्वांगपूर्ण (exhaustive) नहीं समझना चाहिये।
१. शास्त्र अध्ययन – उपनिषद्, गीता, रामायण, भागवत् आदि ग्रन्थों का प्रतिदिन अध्ययन एवं उनके अनुसार चेष्टा में प्रवृत्ति। इसी प्रकार सत् पुरुषों की व्याख्याओं एवं धार्मिक पत्रिकाओं का पठन-पाठन। साथ ही रजोगुण को बढ़ाने वाली व्यवसायिक पुस्तकों का केवल इस दृष्टि से अध्ययन जिससे अन्य लोगों की सेवा और हित साधन अधिक हो सके। धन-प्राप्ति के लक्ष्य की सर्वथा उपेक्षा। इसी प्रकार समाचार-पत्रों व सामाजिक पत्रिकाओं का सीमित पाठ। सांसारिक वार्तालाप व वाद-विवाद से सर्वधा बचना। तमोगुण को बढ़ाने वाले अश्लील व कुरुचिपूर्ण साहित्य, कामोत्तेजक पुस्तकों, पत्रिकाओं एवं चित्रों आदि का सर्वथा बहिष्कार।
२. निवास स्थान का चयन – ऐसे स्थान का चयन यथासम्भव करना जहाँ सत्संग, देवालय आदि की समीपता तथा जहाँ भक्तों एवं सज्जनों का निवास हो। घर में या अपने व्यक्तिगत निवास के कक्ष में श्री ठाकुर जी की प्रतिमा/चित्र की स्थापना करना एवं फूलों से उनका श्रृंगार और प्रतिमा का चन्दन से लेप, अगरबत्ती व धूप आदि सुगन्धों का प्रयोग करना। घर में तथा अपने कक्ष में स्थान-स्थान पर भगवतृ-सम्बन्धी चित्र लगाना। सत्-साहित्य त्य का नियमित पठन-पाठन, श्रवण और मनन करना एवं भजन-कीर्तन करना। समय-समय पर धार्मिक उत्सव मनाना। कभी-कभी महात्माजनों और सत्पुरुषों से उत्सवों में सम्मिलित होने की प्रार्थना करना। रजोगुण और तमोगुण बढ़ाने वाली वस्तुओं एवं व्यक्तियों से अपनी रुचि हटाना एवं केवल आवश्यक काम भर सम्पर्क रखना।
३. कर्म – शास्त्रानुमोदित एवं सात्तिक कर्म (गीता- १८४२३) करना जिसमें सात्त्विक यज्ञ (गीता- १७/११), सात्त्विक दान (गीता- १७/२०) और शारीरिक तप (गीता- १७/१४), वाणी का तप (गीता-१७/१५), मानसिक तप (गीता- १७०१६) को सात्त्विक भाव (गीता- १७/१७) से करना सम्मिलित हों। कर्म करने की प्रेरणा में कामना, क्रोध तथा लोभ का पूर्णतया त्याग। रजोगुण बढ़ाने वाले विचारों तथा धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान, पद-पदवी, प्रतिष्ठा, दाम्पत्य-सुख के विचारों का निरन्तर त्याग। तमोगुण बढ़ाने वाले कुरुचिपूर्ण, अनैतिक एवं कामोत्तेजक कर्मों का बलपूर्वक त्याग।
४. ध्यान – यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। मनुष्य जहाँ भी हो और जिस अवस्था में हो, जो भी कर्म करता हो, किन्तु मन में हर समय कुछ न कुछ विचार आते रहते हैं। शास्त्र के अध्ययन और उनके निर्देशों के अनुसार कर्म करते समय भी मन में भाँति-भाँति के विचार आते हैं। सत्त्वगुण के अर्जन के लिये बुद्धि द्वारा निश्चय कर लेने पर यह सम्भव हो जाता है कि विचारों में नित्य भगवान् एवं उनकी वाणी का निरन्तर स्मरण बना रहे (गीता- ८/७)। ध्यान ऐसी वस्तु नहीं है जिसे केवल किसी निश्चित समय के लिये किया जाये। यह तो वह वस्तु है जो निरन्तर मन में उसी प्रकार बनी रहती है जैसे माँ को अपने अबोध शिशु का ध्यान हर समय बना रहता है। प्रातःकाल सोकर उठने के बाद और रात्रि में सोने तक निरन्तर भगवान् के नाम-जप का अभ्यास करने से उनका ध्यान हर समय होने लगता है। रजोगुण के कारण कर्मों का और तमोगुण के कारण निष्क्रियता का ध्यान बलपूर्वक मन से हटा देना चाहिये।
(क्रमशः…)
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