त्रिगुण-विज्ञान(१)

मई मास का द्वितीय पाक्षिक निवेदन-

 

प्रकृति के तीन गुण विख्यात हैं – सत्‌, रज तथा तम। इन गुणों के भली प्रकार ज्ञान को भगवान्‌ सब ज्ञानों में सर्वोत्तम बताते हैं (गीता – १४/१)। उनका आश्वासन है कि इस ज्ञान के आलम्बन से मनुष्य भगवान्‌ के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है (गीता – १४/२)।

२.  सत्त्वगुण से मन में ज्ञान और सुख उपजते हैं। रजोगुण से स्वार्थमय कमों में प्रवृत्ति तथा तमोगुण से प्रमाद (व्यर्थ चेष्टा), आलस्य (कर्तव्य की उपेक्षा) तथा निद्रा (निष्क्रियता) उपजते हैं।

३.  तीनों गुणों के उपरोक्त प्रभावों से सुख लेने की आशा ही बन्धनकारी है। भगवत्‌सेवा में इनका उपयोग मात्र करना बन्धनकारी नहीं है।

४.  मनुष्य में ये तीनों गुण साथ-साथ रहते हैं, किन्तु जब एक गुण बढ़ता है तब शेष दो गुण दब जाते हैं। दबे हुए गुण बढ़े हुए गुण के सहायक बन जाते हैं। यथा – सत्‌ के बढ़ने पर रजोगुण से कर्म परहित में होते हैं और तमोगुण से विश्वाम मिलता है। रजोगुण के बढ़ने पर सत्त्वगुण से व्यक्तिगत आर्थिक-लाभ, सम्मान-प्राप्ति एवं काम-सुखकी आशा मिलती है और तमोगुण इन क्षण-भँगुर सुखों के प्राप्त होने पर प्रमाद, आलस्य और निद्रा की प्रेरणा देता है। तमोगुण के बढ़ने पर अपने द्वारा किये गए पाप को रोकने और पुण्य करने की ओर चेष्टा न होकर निष्क्रियता होती है।

५.  सत्त्वगुण की वृद्धि से पुण्य होते हैं। रजोगुण की वृद्धि से पाप होते हैं और तमोगुण से निष्क्रितता और मोह होते हैं। (गीता – १४/१७)।

६.  मन में इन गुणों के बढ़ाने में १० तत्त्व सहायक होते हैं। इन में से ५ पूर्वकृत कर्मोंसे बने प्रारब्ध से प्राप्त होते हैं किन्तु पाँच तत्त्व मनुष्य वर्तमान जन्म में स्वेच्छा से चेष्टा द्वारा अर्जित करता है। इसके अन्तर्गत शास्त्र-अध्ययन, निवास स्थान का चयन, कर्म, ध्यान तथा मन्त्र-जप के लिए चेष्टा होती है (गीता जीवन-विज्ञान में १४/१० की टीका)।

७.  सत्त्वगुण की अधिकता से चित्त में उत्साह एवं प्रफुल्लता बढ़ते हैं। सर्वोपयोगी कर्म में न मन ऊबता है और न थकान होती है। इन्द्रियां चेतनता व प्रकाश से भरी रहती हैं। रजोगुण का फल क्षणभंगुर सुख की प्रतीति एवं अन्ततः दुःख है। तमोगुण की अधिकता से आलस्य के कारण कर्तव्य कर्मों की उपेक्षा व टालमटोल होते हैं। जैसे, मनोरंजन के लिए ताश खेलना, टी.वी व सिनेमा में चलचित्र देखने में समय का नष्ट करना, गपशप में समय बिताना आदि प्रमादों में मन लगा रहता है। मद्यपान व जुए आदि व्यसनों की लत पड़ जाती है। सब प्रकार के उपयोगी कमों में विपरीत भाव रहता है।

८.  सत्त्वगुण की अधिकता रहने पर वर्तमान जीवन आनन्दपूर्वक चलता है और मरणोपरान्त सुखकर देवयोनियों की प्राप्ति होती है। रजोगुण की अधिकता से वर्तमान जीवन दुःखी व आशंकित रहता है और मरणोपरान्त उससे अधिक दुःखी जन्म की प्राप्ति होती है, यथा – अभाव ग्रस्त परिवार, शारीरिक अंगों में हीनता व दुर्बलता आदि। तमोगुण की अधिकता होने पर वर्तमान जीवन में विषाद, हताशा आदि होते हैं तथा मरणोपरान्त पशु व कीट, पतंगों आदि की योनियों की प्राप्ति होती है।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥