- दीपावली में घरों को जगमगाते दीपों की पंक्तियों से जब सजाया जाता है, तब पूरा वातावरण सौंदर्य और प्रफुल्लता से भर जाता है। किंतु यदि दीपमाला के स्थान पर केवल एक ही दीपक को प्रज्वलित किया जाय, तब उसका प्रकाश, उसका सौंदर्य सीमित ही रह जाता है। आइए, अपने इसी अनुभव पर विचार करके हम इस वर्ष की दीपावली को अपने लिए और भी सार्थक बनाने का प्रयास करें।
- श्री युगल सरकार की असीम कृपा से परम पूज्य बाबूजी (श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दार ‘भाईजी’), परम पूज्य श्रीराधाबाबा तथा परम पूज्य नानाजी (श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा) से हमको ज्ञात हुआ कि दीपावली के दिन श्रीसीतारामजी के स्वागत के लिए घर को शृंगारित तो किया ही जाता है, किंतु इस शृंगार के निमित्त से हृदय को दैवी सद्गुणों से शृंगारित करना कहीं अधिक आवश्यक है – और यह तभी संभव है जब इससे पहले दशहरे के पर्व पर रावण-रूपी अहंकार पर विजय प्राप्त की जाय।
- हम सब परमात्मा के अंश हैं, जो सत्-चित्-आनंद के घनीभूत पुंज हैं। किंतु ‘अहंकार’ का भाव हमें अपने शरीर के क्षुद्र रूप से बाँधता है। इसी से अपनी व्यक्तिगत पसंदगी, अपनी सुख-सुविधा और अपने मान-सम्मान का महत्त्व बढ़ता है। फिर जो भी व्यक्ति इनमें बाधक हो, उनके प्रति द्वेष-क्रोध-ईर्ष्या-श्रेष्ठता-हीनता जैसे भावों को हम पकड़े रहते हैं। दीपावली का प्रकाश अनुभव करने के लिए क्षुद्रता के इन भावों का त्याग करना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है।
- हम सब विभिन्न सदस्यों के साथ किसी न किसी समूह के अंग हैं – चाहे वह कार्यालय में हो या घर-परिवार में। अब यदि हम संकीर्णता व क्षुद्रता के विचारों को पकड़े रहेंगे, तब हम यही चाहेंगे कि ‘मेरी पसंदगी के अनुसार सब व्यवहार करें, मेरी ओर ध्यान दें, मेरी ही प्रशंसा हो’। इससे हम उस दीपक के जैसे बन जायँगे जो अकेले ही जलना चाहता है। इस संकुचित भाव से हमारे जीवन का प्रकाश, सौन्दर्य, उल्लास – ये सब सीमित हो जायँगे ।
- पर यदि हम भगवान की ओर अपनी दृष्टि टिकायँगे, तो हम निरंतर यह सोचेंगे कि हमारी हर चेष्टा से प्रभु प्रसन्न हो रहे हैं कि नहीं? यदि हो रहे हैं, तो उनका यह प्रेम पाकर हम संतोष का अनुभव करेंगे, और फिर दूसरों से प्रशंसा या अनुकूल व्यवहार प्राप्त करने की लालसा शान्त होगी। साथ ही, प्रभु से जुड़े रहने का यह जो संतोष और आनंद है, उसको अपने से जुड़े प्रत्येक सदस्य में वितरित करने की क्षमता भी हमें प्राप्त होगी। ऐसे में हम पारस्परिक व्यवहार में दूसरों को महत्त्व देंगे, उनकी धर्मयुक्त पसन्दगी को प्राथमिकता देंगे और उनकी प्रशंसा सुनकर भी प्रसन्न होंगे। ऐसे सौहार्दमय वातावरण में हमें अपने लिए भी सुख-सुविधा, मान-सम्मान की प्राप्ति अवश्य होगी।
- इसीलिए पूज्य नानाजी हमें पूज्य बाबूजी का आदेश याद दिलाते थे कि अपने अहंकार का नाश करने की चेष्टा न करें; उसका केवल विस्तार करें, अर्थात् उसमें सब को सम्मिलित करें। यह भाव रखें कि हर प्राणी के माध्यम से मेरे प्रभु को ही तो सुख मिल रहा है, और उनके सुख से मैं भी प्रसन्न हूँ। इस प्रकार हम अपने अहंकार में सभी प्राणियों को तब तक सम्मिलित करते रहें, जब तक हमारा अहंकार बढ़ते-बढ़ते भगवान् के श्रीचरणों में ही विलीन न हो जाय। ऐसी चेष्टा से हमारे जीवन में श्रीसीतारामजी अवश्य पधारेंगे और दीपावली का पर्व सार्थक हो जायगा।
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