दीपावली संदेश २०२५
अपने अहंकार को बढ़ाते जायँ!

  1. दीपावली में घरों को जगमगाते दीपों की पंक्तियों से जब सजाया जाता है, तब पूरा वातावरण सौंदर्य और प्रफुल्लता से भर जाता है। किंतु यदि दीपमाला के स्थान पर केवल एक ही दीपक को प्रज्वलित किया जाय, तब उसका प्रकाश, उसका सौंदर्य सीमित ही रह जाता है। आइए, अपने इसी अनुभव पर विचार करके हम इस वर्ष की दीपावली को अपने लिए और भी सार्थक बनाने का प्रयास करें।
  2. श्री युगल सरकार की असीम कृपा से परम पूज्य बाबूजी (श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दार ‘भाईजी’), परम पूज्य श्रीराधाबाबा तथा परम पूज्य नानाजी (श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा) से हमको ज्ञात हुआ कि दीपावली के दिन श्रीसीतारामजी के स्वागत के लिए घर को शृंगारित तो किया ही जाता है, किंतु इस शृंगार के निमित्त से हृदय को दैवी सद्गुणों से शृंगारित करना कहीं अधिक आवश्यक है – और यह तभी संभव है जब इससे पहले दशहरे के पर्व पर रावण-रूपी अहंकार पर विजय प्राप्त की जाय।
  3. हम सब परमात्मा के अंश हैं, जो सत्-चित्-आनंद के घनीभूत पुंज हैं। किंतु ‘अहंकार’ का भाव हमें अपने शरीर के क्षुद्र रूप से बाँधता है। इसी से अपनी व्यक्तिगत पसंदगी, अपनी सुख-सुविधा और अपने मान-सम्मान का महत्त्व बढ़ता है। फिर जो भी व्यक्ति इनमें बाधक हो, उनके प्रति द्वेष-क्रोध-ईर्ष्या-श्रेष्ठता-हीनता जैसे भावों को हम पकड़े रहते हैं। दीपावली का प्रकाश अनुभव करने के लिए क्षुद्रता के इन भावों का त्याग करना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है।
  4. हम सब विभिन्न सदस्यों के साथ किसी न किसी समूह के अंग हैं – चाहे वह कार्यालय में हो या घर-परिवार में। अब यदि हम संकीर्णता व क्षुद्रता के विचारों को पकड़े रहेंगे, तब हम यही चाहेंगे कि ‘मेरी पसंदगी के अनुसार सब व्यवहार करें, मेरी ओर ध्यान दें, मेरी ही प्रशंसा हो’। इससे हम उस दीपक के जैसे बन जायँगे जो अकेले ही जलना चाहता है। इस संकुचित भाव से हमारे जीवन का प्रकाश, सौन्दर्य, उल्लास – ये सब सीमित हो जायँगे ।
  5. पर यदि हम भगवान की ओर अपनी दृष्टि टिकायँगे, तो हम निरंतर यह सोचेंगे कि हमारी हर चेष्टा से प्रभु प्रसन्न हो रहे हैं कि नहीं? यदि हो रहे हैं, तो उनका यह प्रेम पाकर हम संतोष का अनुभव करेंगे, और फिर दूसरों से प्रशंसा या अनुकूल व्यवहार प्राप्त करने की लालसा शान्त होगी। साथ ही, प्रभु से जुड़े रहने का यह जो संतोष और आनंद है, उसको अपने से जुड़े प्रत्येक सदस्य में वितरित करने की क्षमता भी हमें प्राप्त होगी। ऐसे में हम पारस्परिक व्यवहार में दूसरों को महत्त्व देंगे, उनकी धर्मयुक्त पसन्दगी को प्राथमिकता देंगे और उनकी प्रशंसा सुनकर भी प्रसन्न होंगे। ऐसे सौहार्दमय वातावरण में हमें अपने लिए भी सुख-सुविधा, मान-सम्मान की प्राप्ति अवश्य होगी।
  6. इसीलिए पूज्य नानाजी हमें पूज्य बाबूजी का आदेश याद दिलाते थे कि अपने अहंकार का नाश करने की चेष्टा न करें; उसका केवल विस्तार करें, अर्थात् उसमें सब को सम्मिलित करें। यह भाव रखें कि हर प्राणी के माध्यम से मेरे प्रभु को ही तो सुख मिल रहा है, और उनके सुख से मैं भी प्रसन्न हूँ। इस प्रकार हम अपने अहंकार में सभी प्राणियों को तब तक सम्मिलित करते रहें, जब तक हमारा अहंकार बढ़ते-बढ़ते भगवान् के श्रीचरणों में ही विलीन न हो जाय। ऐसी चेष्टा से हमारे जीवन में श्रीसीतारामजी अवश्य पधारेंगे और दीपावली का पर्व सार्थक हो जायगा।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥