शुभ दीपावली २०२१

१. दीपावली के शुभ पर्व पर श्रीलक्ष्मी-गणेश की पूजा परम्परागत रूप से की जाती है। श्रीलक्ष्मीजी को धन-सम्पत्ति की अधिष्ठात्री-देवी माना जाता है। इसका सूक्ष्म अर्थ समझने के लिए धर्मशास्त्रों एवं पूज्य संत-वचनों के आधार पर कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं –
२. परम पूज्या निर्मला माँ के अनुसार श्रीलक्ष्मीजी वास्तव में ‘नाम-धन’ की देवी हैं, क्योंकि भगवन्नाम-जप व कीर्तन ही मनुष्य-जीवन का सबसे मूल्यवान धन है।
३. श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय १६, श्लोक १-३) में वर्णन आता है कि २६ दिव्य सद्गुण ही वह दैवी-सम्पदा (अर्थात सम्पत्ति) है जिसे अभिव्यक्त करना हर मनुष्य का सौभाग्य है।
४. ‘श्रीमद्भगवद्गीता – जीवन विज्ञान’ में इन श्लोकों की व्याख्या में श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा (पूज्य ‘नानाजी) ने लिखा है कि ये सब सद्गुण वास्तव में आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं। इनको बाहर कहीं से अर्जन नहीं करना पड़ता। परन्तु सांसारिक मान्यताओं के प्रवाह में विचलित होकर मनुष्य इन सब स्वभावगत गुणों को स्वीकार या धारण नहीं कर पाता।
५. इसी व्याख्या में इन सद्‌गुणों को धारण करने के लिए कुछ उपयोगी चरण प्रस्तुत हैं –

  • पहले, इन पर अपनी आस्था जमाई जाए। इन्हें अपने लिए सब काल में और हर परिस्थिति में धारण करने योग्य समझा जाए।
  • फिर, इनको धारण करने का भरसक प्रयत्न किया जाए।
  • साथ ही, भगवान्‌ की शरण होकर उनसे प्रार्थना की जाए कि वे हमें ऐसी शक्ति प्रदान करें जिससे हमारे इन स्वाभाविक गुणों का प्रकाश हो सके।

६. व्याख्या में पूज्य ‘नानाजी’ ने इन चेष्टाओं के दो प्रभाव भी बताए हैं –

  • इन सद्गुणों के लिए हमारी आस्था दृढ़ होती है और सांसारिक मान्यताओं का प्रभाव हमें ढुलमुल करना बन्द कर देता है।
  • भगवान्‌ की कृपा से धीरे-धीरे ऐसी परिस्थितियाँ कम और क्षीण होने लगती हैं जिनमें इनके विपरीत भावों का उदय हो या वे ग्रहण हों।

७. परम पूज्य राधा बाबा ने ‘जय जय प्रियतम’ महाकाव्य के द्वितीय शतक में यह संकेत किया है कि यदि हम अपने मन-रूपी गृह को इन सद्गुण-रूपी रत्नों से सुशोभित करें, तो जीवन में न कोई भय रहेगा, न अभाव का कोई भान।

 

छोटा सा ग्राम एक अद्भुत कासार तीरपर था, प्रियतम।
थे रत्नजटित सब गृह उसमें बसनेवालों के, हे प्रियतम।
देवी के कृपापात्र वे थे, निर्भय थे सभी सदा, प्रियतम।
राजा-सा जीवन था उनका, पर शीलवान वे थे, प्रियतम ||१९९ ||

 

तो आइए, इस दीपावली पर हम सब मिलकर श्रीलक्ष्मीजी के कृपापात्र बनें, २६ दैवी सदगुणों का श्रृंगार धारण करके मन-वचन-कर्म से शीलवान बनें, और प्रभु श्रीसीतारामजी की कृपा से अपने लिए राजा-सा जीवन निर्मित कर लें।

 

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥