१. दीपावली के शुभ पर्व पर श्रीलक्ष्मी-गणेश की पूजा परम्परागत रूप से की जाती है। श्रीलक्ष्मीजी को धन-सम्पत्ति की अधिष्ठात्री-देवी माना जाता है। इसका सूक्ष्म अर्थ समझने के लिए धर्मशास्त्रों एवं पूज्य संत-वचनों के आधार पर कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं –
२. परम पूज्या निर्मला माँ के अनुसार श्रीलक्ष्मीजी वास्तव में ‘नाम-धन’ की देवी हैं, क्योंकि भगवन्नाम-जप व कीर्तन ही मनुष्य-जीवन का सबसे मूल्यवान धन है।
३. श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय १६, श्लोक १-३) में वर्णन आता है कि २६ दिव्य सद्गुण ही वह दैवी-सम्पदा (अर्थात सम्पत्ति) है जिसे अभिव्यक्त करना हर मनुष्य का सौभाग्य है।
४. ‘श्रीमद्भगवद्गीता – जीवन विज्ञान’ में इन श्लोकों की व्याख्या में श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा (पूज्य ‘नानाजी) ने लिखा है कि ये सब सद्गुण वास्तव में आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं। इनको बाहर कहीं से अर्जन नहीं करना पड़ता। परन्तु सांसारिक मान्यताओं के प्रवाह में विचलित होकर मनुष्य इन सब स्वभावगत गुणों को स्वीकार या धारण नहीं कर पाता।
५. इसी व्याख्या में इन सद्गुणों को धारण करने के लिए कुछ उपयोगी चरण प्रस्तुत हैं –
- पहले, इन पर अपनी आस्था जमाई जाए। इन्हें अपने लिए सब काल में और हर परिस्थिति में धारण करने योग्य समझा जाए।
- फिर, इनको धारण करने का भरसक प्रयत्न किया जाए।
- साथ ही, भगवान् की शरण होकर उनसे प्रार्थना की जाए कि वे हमें ऐसी शक्ति प्रदान करें जिससे हमारे इन स्वाभाविक गुणों का प्रकाश हो सके।
६. व्याख्या में पूज्य ‘नानाजी’ ने इन चेष्टाओं के दो प्रभाव भी बताए हैं –
- इन सद्गुणों के लिए हमारी आस्था दृढ़ होती है और सांसारिक मान्यताओं का प्रभाव हमें ढुलमुल करना बन्द कर देता है।
- भगवान् की कृपा से धीरे-धीरे ऐसी परिस्थितियाँ कम और क्षीण होने लगती हैं जिनमें इनके विपरीत भावों का उदय हो या वे ग्रहण हों।
७. परम पूज्य राधा बाबा ने ‘जय जय प्रियतम’ महाकाव्य के द्वितीय शतक में यह संकेत किया है कि यदि हम अपने मन-रूपी गृह को इन सद्गुण-रूपी रत्नों से सुशोभित करें, तो जीवन में न कोई भय रहेगा, न अभाव का कोई भान।
छोटा सा ग्राम एक अद्भुत कासार तीरपर था, प्रियतम।
थे रत्नजटित सब गृह उसमें बसनेवालों के, हे प्रियतम।
देवी के कृपापात्र वे थे, निर्भय थे सभी सदा, प्रियतम।
राजा-सा जीवन था उनका, पर शीलवान वे थे, प्रियतम ||१९९ ||
तो आइए, इस दीपावली पर हम सब मिलकर श्रीलक्ष्मीजी के कृपापात्र बनें, २६ दैवी सदगुणों का श्रृंगार धारण करके मन-वचन-कर्म से शीलवान बनें, और प्रभु श्रीसीतारामजी की कृपा से अपने लिए राजा-सा जीवन निर्मित कर लें।
Download Pdf