शुभ दीपावली (2019)

।।श्री राम ।।

शुभ दीपावली २०१९ के लिये मंगल सन्देश

 

दीप-ज्योति जाग्रत् कर दे शुभ दिव्य भागवत्‌-ज्योति अपार।
नित्य दिव्य सुख-शान्ति, प्रीति हरि-पद हो जीवन के आधार।।

(पद रत्नाकर, पद सं० १५५०)

 

तो आइए, परम पूज्य “बाबूजी’ (श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी) के द्वारा व्यक्त इन दिव्य भावों से अपने मन को एकाकार करें और दीपावली के पर्व पर अपने हृदय में भागवत्-ज्योति जाग्रत् होने दें।

श्रीमद्‌भगवद्‌गीता के अ० १० श्लोक ११ में भगवान्‌ अपने भक्तों को महान्‌ आश्वासन देते हैं-

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं  तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।।१०.११।।

अर्थ – हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही, मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में एकीभाव से स्थित डुआ; अज्ञान से उत्पन्न हुए अन्धकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ।।११।।

अर्थात्‌ भगवान्‌ अपनी कृपा के वशीभूत होकर प्रत्येक मनुष्य के हृदय में स्वयं पधारकर तत्त्वज्ञानरूपी दीप जलाने के लिए तैयार हैं। उनकी इस कृपा को जीवन में अनुभव करने के लिए हमें बस एक ही काम करना है – भगवान्‌ का प्रीतिपूर्वक भजन। इस भजन-रूपी साधन के विभिन्‍न अंगों का वर्णन अ० १० श्लोक ८, ९ व १० में दिया गया है।

श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – जीवन-विज्ञान’ में पूज्य नानाजी (श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा) ने इन श्लोकों पर जो व्याख्या की है, इस पर आधारित कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं  –

१.भगवान्‌ के भजन के अन्तर्गत सबसे पहले भक्त को अपनी बुद्धि में यह बात दृढ़ता से बैठा लेनी चाहिए कि भगवान्‌ से ही सारे जगत्‌ की उत्पत्ति होती है, और जितने भी व्यवहार इसे अन्य लोगों से प्राप्त होते हैं, वे सब भगवान्‌ के द्वारा ही नियंत्रित होते हैं। इन बातों पर निरन्तर मनन करने से धीरे-धीरे हृदय में श्रद्धा और भक्ति के भाव अविचल रूप से स्थापित होने लगते हैं।

२. ऐसा भक्त निरन्तर भगवान्‌ से जुड़ा रहता है। अपने शरीर की हर चेष्टा द्वारा वह अपने कर्तव्यों का निर्वाह भगवान्‌ की सेवा समझकर करता है। भगवान्‌ के नाम, गुण, लीला, धाम से सम्बन्धित विचारों में डूबा रहता है और इसलिए उन्हीं की चर्चा करता है। इसके अन्तर्गत शास्त्रों व संतों के वचन तथा अपने दैनिक-जीवन के सभी कर्तव्यों को भगवान्‌ का काम समझकर उनकी सर्वोत्तम विधि पर विचार और चर्चा करना भी सम्मिलित है। इस प्रकार उसकी प्रत्येक चेष्टा भक्ति-मिश्रित कर्ममोग का साधन बनकर भगवान्‌ की उपासना ही होती है। भगवान्‌ से निरन्तर जुड़े रहने के सुख से वह सदा सन्तुष्ट रहता है और इसलिए संसार की किसी भी वस्तु पर वह सुख-प्राप्ति के लिए निर्भर नहीं रहता।

३. ऐसे अनन्य प्रेम को देखकर भगवान्‌ के हृदय में उस भक्त के प्रति तीव्र अनुराग उत्पन्न होता है और वे उस पर कृपा करने के लिए विवश हो जाते हैं। ऐसे भक्त को वे फिर “बुद्धियोग” प्रदान करते हैं, उसके अन्तःकरण में स्वयं ही पधारकर तत्त्वज्ञानरूप दीपक जला देते हैं और असंख्य जन्मों से उत्पन्न अँधकार का नाश कर देते हैं।

दीपावली के मंगल पर्व पर हम सभी को यह स्वर्णिम अवसर प्राप्त है कि इन बिन्दुओं पर हम भली प्रकार मनन करें। फिर भगवान्‌ की कृपा का आश्रय लेकर हम पूरी दृढ़ता और प्रेम से अपना मन भगवान्‌ में लगाने में जुट जाएँ।

प्रभु से प्रार्थना है कि वे हमारे हृदय में पधारकर ज्ञान और प्रेम का दीपक जलाने की कृपा करें।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥