श्रद्धा और विश्वास

मई-२०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन-

 

साधन मार्ग पर चलने में दो भाव अत्यन्त आवश्यक हैं- श्रद्धा और विश्वास श्रद्धा मन का वह भाव है जिसके आधीन अपने विचारों और कर्मों को करने से ही मनुष्य अपना कल्याण निश्चित होना सम्भव समझता है। विश्वास मन का वह भाव है जिसके आधार पर मनुष्य यह दृढ़ विचार रखता है कि अमुक व्यक्ति अथवा ग्रन्थ आदि द्वारा प्रतिपादित बात ही संशयरहित सत्य है। उदाहरणार्थ – किसी विद्यालय की एक कक्षा में कई विद्यार्थी होते हैं। इनमें से कुछ छात्र अपने मन को एकाग्र कर सर्वप्रथम अपने पाठ्यक्रम की जानकारी प्राप्त करते हैं। उस पर अपने मन को केन्द्रित कर निर्धारित पुस्तकें प्राप्त करते हैं। ऐसा करने में वे विद्यालय के नियमों और अध्यापकों के प्रति पूर्ण “श्रद्धा” रखते हैं तथा यह “विश्वास” रखते हैं कि ऐसा करने में वे उस कक्षा की योग्यता प्राप्त करने में निश्चित रूप से सफल होंगे। ऐसी श्रद्धा और विश्वास के बल पर जीवन में उनको निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होती है। इसके विपरीत कुछ छात्रों में न श्रद्धा होती है और न विश्वास। वे दूसरों छात्रों की देखा-देखी किसी तरह विद्यालय में अपना समय काटते रहते हैं। कभी-कभी तो वे अवांछनीय व्यक्तियों और पदार्थों का सेवन कर परिवार और समाज के लिये अभिशाप ही बन जाते हैं।

२. श्रद्धा और विश्वास के भाव एक दूसरे पर अवलम्बित रहते हैं। श्रद्धा से विश्वास और विश्वास से श्रद्धा पुष्ट होते हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीपार्वतीजी को श्रद्धा का तथा शंकर भगवान्‌ को विश्वास का साकार रूप बताया है। (रामचरितमानस, बालकाण्ड, मंगलाचरण)

३. प्रकृति के तीन गुण अर्थात् सत्वगुण,रजोगुण और तमोगुण की तरह, प्रत्येक मनुष्य की जन्मजात श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती है- सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक(गीता १७/२)। इसीलिए यह श्रद्धा “स्वभावजा” कही गई है। किन्तु वर्तमान जन्म में मनुष्य मात्र को यह अधिकार है कि वह उचित उपाय करके अपनी स्वभावजा श्रद्धा को जैसा चाहे मोड़ दे। वर्तमान मनुष्य जन्म में प्रयत्न करने से स्वभावजा श्रद्धा पूरी तरह बदल सकती है। (गीता-जीवन विज्ञान १४/१० की व्याख्या)

४. मनुष्य के जीवन की गति तथा मरणोत्तर गति इस पर निर्भर करती है कि जीवन में तथा मृत्यु के समय उसके मन में किस गुण की प्रधानता है। सत्वगुण की प्रधानता से उसकी गति ज्ञान तथा सुख की ओर होती है। रजोगुण की प्रधानता से दुःख की ओर गति होती है। तमोगुण की प्रधानता से अज्ञान (अंधकार, विषाद, शोक, इत्यादि) की ओर गति होती है(गीता १४/१६)। इन में से किसी भी समय होने वाली गति को समझकर मनुष्य यह जान सकता है कि इस समय उसके मन में कौन सा गुण प्रधानता से है।

५. सत्वगुण की प्रधानता रहने से तथा भगवान्‌ में दृढ़ भक्तिभाव होने से मनुष्य तीनों गुणों को पार कर भगवत्‌ स्वरूप प्राप्त कर लेता है (गीता १४/२६)।

६. सारांश यह है कि भगवान्‌ की वाणी अर्थात गीता, भागवत्‌, रामचरितमानस आदि सदग्रन्थों पर निष्ठा, उन पर रचित संत- महात्मा आदि महापुरुषों की व्याख्याओं पर दृढ़ विश्वास करना,रजोगुणी एवं तमोगुणी प्रकृति के मनुष्यों के प्रति सद्भाव रखते हुए किन्तु उनके संग या साहित्य से सुख लेने की आशा का त्याग करना, भक्तों के चरित्र पढ़ना, भगवान्‌ की लीलाओं पर निरन्तर विचार करना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है। इससे पूर्व जन्म की अर्जित श्रद्धा बदल कर सात्विक हो जाती है और साथ ही भगवान्‌ की भक्ति से भगवत्प्राप्ति हो जाती है। भगवन्नाम तथा मंत्रों के नित्य स्मरण एवं नियम पूर्वक जप से यह कार्य अत्यन्त सुगमतापूर्वक सिद्ध हो जाता है।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥