सास-बहू का झगड़ा

॥ राधा ।।

(श्री सिन्हा ने इस लेख का शीर्षक यह रखा है किन्तु यह हर सम्बन्ध पर लागू होता है)

आज कल प्रायः देखने में आता है कि माता-पिता अपने विवेक का आश्रय लेकर अपने पुत्र का विवाह करते हैं किन्तु विवाहोपरान्त एक वर्ष भी नहीं बीतने पाता कि घर में पारस्परिक झगड़े आरम्भ हो जाते हैं। पुत्र यदि माता का पक्ष ले तो पत्नी ताना मारती है कि “यदि यही करना था तो मुझसे विवाह क्‍यों किया” यदि वह पत्नी का पक्ष ले तो माता ताना मारती है कि “मैंने तो इसे जन्म दिया और पाल-पोस कर बड़ा किया। बड़े अरमानों से इसका विवाह किया और यह अपनी पत्नी का मुख देखते ही मुझसे विमुख हो गया ।” इन दो पाटों के बीच में पिसते हुए पति की तो चटनी बन जाती है और प्रतिदिन की घर की कलह से तंग आकर संबंध-विच्छेद की तैयारियाँ होने लगती हैं। इसका भीषण रूप यह है कि 1994 में मेरठ के परिवार न्यायालय में संबंध-विच्छेद के वादों की संख्या जहाँ 200 के लगभग थी वहाँ दस वर्ष में इनकी संख्या 3000 से ऊपर जा चुकी है। (अन्य नगरों की दशा कुछ ऐसी ही होगी ।)

इसी प्रकार बात-बात में पति-पत्नी में झगड़ा होता है । एक-दूसरे के व्यवहार से खींझ कर आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगती है। यदि भोजन समय पर तैयार नहीं हुआ तो पति, पत्नी का उल्टी-सीधी सुनाता है। और शाम को जब पति लौटकर आता है तो पत्नी ताने मारती है कि मैं तो बस खाना बनाने की सेविका हूँ। इस प्रकार के झगड़े धीरे-धीरे सम्बन्धों में दरार डाल देते हैं जिससे या तो पति-पत्नी के सम्बन्ध-विच्छेद की नौबत आ जाती है या पति पत्नी को लेकर माता-पिता से अलग हो जाता है। कभी-कभी तो क्षोभ इतना बढ़ जाता है कि उसके परिणाम से तंग आकर लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं। प्रतिदिन की गृह-कलह का दुष्प्रभाव बच्चों की मानसिकता पर भी पड़ता है और उनके कोमल हृदय में विद्वेष हिंसा असत्य और चोरी के अनिष्टकारी भावों का बीजारोपण हो जाता है।

इस भीषण गृह कलह का कारण केवल एक है और वह है धर्म-शास्त्रों की घोर उपेक्षा । अतः आइए और देखिए कि घर-परिवार को स्वर्ग जैसा सुख प्रदान करने के योग्य बनाने के लिए धर्मशास्त्र क्या बताते हैं –

1. अधिकार – मनुष्य मात्र के लिए गीता में श्रीभगवान्‌ ने केवल एक अधिकार का निर्धारण किया है और वह केवल कर्म करने का अधिकार। कर्म करने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, दाम्पत्य, सुख और संतान आदि पर किसी का भी लेशमात्र अधिकार नहीं है। यह केवल गीता का विधान ही नहीं है अपितु प्रत्येक मनुष्य का यही अनुभव भी है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥

इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार होवे, फल में कभी नहीं और तू कर्मों के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे ।४७॥ (गीता अ0 2 श्लोक सं0 47)

अधिकांश झगड़े अधिकार पाने के लिए ही होते हैं और यदि गीता के इस वचन को अपने अनुभव के आधार पर ही निश्चय पूर्वक स्वीकार कर लें तो सारे झगड़े समाप्त हो जाते हैं। अपने मन से अधिकार प्राप्ति के भाव को यह समझकर त्याग देना चाहिए कि अधिकार प्राप्त करने की इच्छा अथवा प्राप्त अधिकार के भोग की इच्छा ही घोर अधर्म और पाप में प्रवृत्त कराने वाली है। इस इच्छा के आधीन कुछ भी करने से जो नरकों की प्राप्ति शास्त्र में बताई गई है उसके लिए कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है। जिस घर में ऐसे लोग रहते हैं वह स्वयं ही घोर नारकीय यन्त्रणा का स्थान बन जाता है।
कर्म करने के अधिकार का पालन जिस दिशा में होता है वह है – दूसरों के द्वारा अपना-अपना कर्तव्यपालन में यथासम्भव सुविधा देने की चेष्टा दूसरे शब्दों में अपने अधिकार का आग्रह सर्वथा छोड़कर दूसरों के अधिकार की रक्षा करने में सदैव तत्पर रहना।

2. सुख-भोग की इच्छा – यहाँ एक बात और ध्यान देने की है कि अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य भी शरीरधारी है और इसीलिए उसमें भी उन्हीं की भाँति शरीर की माँगों को संतुष्ट करने की प्रवृत्ति मन में उठती रहती है। सामान्य रूप से इस प्रकार की इच्छा को स्वाभाविक समझकर हर मनुष्य यह सोचता है कि मुझे खाना, पीना, सोना और सन्तान सुख संबंधी इच्छाएँ तो स्वाभाविक हैं। किन्तु मनुष्य को यह भी समझना चाहिए कि अन्य सब प्राणियों से भिन्‍न एक उसी को बुद्धि नामक विलक्षण तत्त्व प्राप्त है। जिसके उपयोग से वह अपने परिवार के सदस्यों के मन में उठने वाली इन्हीं इच्छाओं को प्रेमपूर्वक समझकर यथासंभव उनकी इच्छाओं की पूर्ति अपनी धर्मसंगत चेष्टाओं से कर सकता है। पशुओं में बुद्धि लगभग नहीं के बराबर होने के कारण इस प्रकार का भाव जागृत नहीं होता। यदि मनुष्य भी असावधान होकर इन्हीं वस्तुओं को अपने लिए प्राप्तव्य समझने लगे तो शीघ्र ही घर नरक में परिवर्तित होने लग जाता है। अतः ऐसा न करके दूसरों के अधिकार की रक्षा करने वाले मनुष्य का घर के सब सदस्य आदर करने लगते हैं और उसे यथासंभव सुख पहुँचाने की भी चेष्टा करते हैं। यही घर का स्वर्ग सुख प्रदान करने वाला रूप है।

3. स्वार्थ और मान का त्याग – एक बात और समझनी चाहिए नैसर्गिक रूप से मनुष्यों में स्त्री-पुरुष का जो भेद है उसके कारण पुरुष वर्ग में स्त्रियों की अपेक्षा अधिक स्वार्थ बुद्धि होती है और स्त्रियों में पुरुषों से अधिक मान करने की (महाभारत अनुशासन पर्व के दान धर्म पर्व में अध्याय सं0 44) इस सत्य को स्वीकार करने से पुरुष स्त्रियों द्वारा सम्मानित होने के लिए उनके मान के भाव की रक्षा और उसका पालन उन्हें वस्त्राभूषण देकर कर सकता है। दूसरी ओर स्त्रियाँ मुख्यतः पुरुषों के लिए सुस्वादु और सुपोषक भोजन प्रदान कर सुगमता से उनका प्रेम प्राप्त कर सकती हैं।

4. पत्नी का Status- जहाँ तक सास-बहू के संबंधों का प्रश्न है वहाँ शास्त्र यह आज्ञा देते हैं कि विवाहोपरान्‍त सास-ससुर घर में आने वाली वधु को घर का शासन संभालने वाली “साम्राज्ञी” समझे।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस में लिखा है कि दशरथ जी ने सीता जी के अपने घर में आने पर अपनी रानियों से यह कहा- वधु लरिकिनि पर घर आईं, राखहु नयन पलक की नाईं।

यदि घर में आने वाली वधु को शास्त्रों द्वारा निर्देशित उचित मान दिया जाए और उसकी भावनाओं को ठेस न पहुँचाई जाए तो घर में अत्यन्त सुखकर वातावरण बन जाता है और उसका बहुत अच्छा प्रभाव बच्चों के मानसिक विकास का कारण बन जाता है।

5. कर्त्तव्य और अधिकार – जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि मनुष्य का अधिकार केवल दूसरों के प्रति अपना कर्त्तव्य करने में है इसीलिए प्रत्येक मनुष्य अधिकार दूसरों का समझे और उस अधिकार की रक्षा के लिए कर्त्तव्य अपना समझे तो घर में सुख और शान्ति का ही साम्राज्य रहता है। पति पत्नी में इस सिद्धान्त का पालन इस प्रकार होगा कि पति पत्नी का सम्मान, उससे प्रेम करना और उसकी रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझे और इसे पत्नी का अधिकार समझे और पत्नी पति के प्रति एक निष्ठ होकर उसकी आज्ञापालन उससे प्रेम और उसकी सेवा करने को अपना कर्त्तव्य समझे और इसे अपने पति का अधिकार समझे । माता-पिता और संतान में इस सिद्धांत का पालन ऐसे होगा कि माता-पिता निरन्तर बच्चों को भगवत्‌भक्ति का मार्ग दिखाना, धर्मशास्त्र पढ़ाना और उन्हें सांसारिक दुष्प्रभावों से बचाना अपना कर्त्तव्य समझें और इसे उनका अधिकार समझे। संतान माता-पिता की शरीर सेवा उनका सम्मान करने और भगवत्‌भक्ति संबंधित उनकी आज्ञा का पालन करना अपना कर्त्तव्य समझें और उनका अधिकार माने।

6. धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन – अब प्रश्न यह उठता है कि इन सिद्धान्तों का पालन परिवार का हर व्यक्ति करे यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है? इसका उपाय यह है कि निष्ठापूर्वक रामचरितमानस अथवा गीता का अध्ययन परिवार के सब लोग साथ बैठकर करें इसके लिए या तो प्रातःकाल कलेवा करने से पहले और रात्रि में शयन से पहले अवश्य समय निकालना चाहिए। धर्मग्रन्थों के अध्ययन से यह पता चलेगा कि हमारे साथ जो कुछ भी होता है वह हमारे
द्वारा पूर्वकाल में किए गए किसी कर्म का ही फल है। वर्तमान में वह यदि हमें प्रतिकूल लग रहा है तो इसमें पूरा दोष हमारा ही है। किन्तु उसकी प्रतिकूलता को बदलकर वर्तमान में उसे अपने कल्याण का उपयोगी साधन बना लेना हमारे अपने हाथ में है। वर्तमान में निष्ठापूर्वक भगवत्‌भक्ति में लग जाना इसका अचूक साधन है और इस कार्य में सद्ग्रन्थ और सत्पुरुषों से हमें उचित प्रेरणा मिल सकती है। प्रतिदिन पारिवारिक स्तर पर इन ग्रन्थों के स्वाध्याय से मन के विचार भगवान्‌ की भक्ति की ओर दृढ़ रूप से मुड़ने लगते हैं जो स्वार्थ-साधन बड़ा रमणीय लगता है वह विष के सदृश भयानक लगने लगता है और परिवार के सदस्यों को उनके कर्त्तव्य में सुविधा देना अपने लिए सुखकर लगने लगता है।

उपसंहार – संक्षेप में पारिवारिक झगड़ों को मिटाने का अचूक उपाय तो – सत्संग स्वाध्याय, नामजप को निष्ठापूर्वक पारिवारिक स्तर पर नियमित रूप से करना है। इससे अपने अधिकार के अत्यन्त कलहकारी आग्रह का नाश होता है। कर्त्तव्यपालन में उत्साह और हर्ष होता है। यह याद रखना चाहिए कि हर व्यक्ति को अपना कर्त्तव्य दूसरे का अधिकार समझना चाहिए और दूसरे के कर्तव्य को अपना अधिकार कदापि न समझना चाहिए।

राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥