प्रश्नोत्तर

(सन्देश-९) – जुलाई २०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन –

 

प्र0-1. बहुधा देखा जाता है कि आध्यात्मिक सिद्धान्त समझ में आ भी जाते हैं, हम मान भी लेते हैं, किन्तु जीवन में प्रयोग करने में संकोच रहता है। ऐसा क्‍यों होता है?

प्र0-२. साधन भी करते हैं जैसे जप, स्वाध्याय,सत्संग आदि – किन्तु यह प्रतीति नहीं होती कि कुछ सही दिशा में प्रगति हो रही है। इसका निश्चय कैसे हो?

प्र0-३. भगवान का हर विधान मंगलमय होता है, यह जानते हुये भी कुछ विधान अनुकूल और कुछ प्रतिकूल क्‍यों लगते हैं?

उ0  इन तीनों प्रश्नों का एक ही उत्तर है। वह है – जीवन के प्रारम्भ काल से ही धारण किये हुए और गहरे बैठे हुए कामनापूर्ति के भयंकर संस्कार। आध्यात्मिक सिद्धान्तों और साधनों का ज्ञान और उनका पोषण करते हुए तो जितना प्रयास हुआ है, वह इन नये संस्कारों के जड़ में बैठने के लिये अपर्याप्त है। विडम्बना यह है कि साधन करते हुए भी कामनापूर्ति के संस्कारों का पोषण अभी वर्तमान में चालू भी रहता है। सामाजिक और पारिवारिक वातावरण तो कामनापूर्ति के प्रयासों (रजोगुण) अथवा निष्क्रियता या प्रमाद (तमोगुण) से पूर्णतया आच्छादित है। अपने प्रयासों से बहुत सीमा तक आध्यात्मिक सिद्धान्त और साधन मन में बैठने लगते हैं, किन्तु इसमें शीघ्र सफलता केवल दूढ़ भगवद्विश्वास और भगवत्कृपा से ही मिलती है। इसके लिये “सबसे सुगम, निरापद एवं पतन के भय से सर्वथा शून्य उपाय है – अधिक से अधिक भगवान्‌ पर निर्भर होना” (आस्तिकता-सार, पृ० 3, पंक्ति सं० 1 से 3 तथा पृ० 4 पंक्ति सं० 43 से 47)। भगवान्‌ पर निर्भरता के लिये यह आवश्यक है कि जीभ से भगवन्नाम निरन्तर होता रहे, चाहे मन लगे या न लगे। साथ ही, भगवान की आज्ञा का उल्लंघन न करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिये और उल्लंघन होने पर मन में सच्चा पश्चाताप होना चाहिये।

भगवद्विश्वास दृढ़ करने और कुसंग के त्याग के लिये हर समय तैयार रहना पड़ेगा। कुसंग किसी व्यक्ति या परिस्थिति से नहीं अपितु अपने ही मन में उनसे सुख पाने की इच्छा से होता है। अतः इसमें परिवार या कार्यक्षेत्र को छोड़ना बिल्कुल आवश्यक नहीं है। उनके प्रति प्रत्येक धर्मसंगत एवं न्यायसगंत कर्म अपनी सामर्थ्य के अनुसार करते रहना चाहिये, तथा “सबसे सम्मान, प्रेम, हित और सत्य – इन चारों बातों को ध्यान में रखकर ही व्यवहार कीजिये” (आस्तिकता-सार, पृ० 2, पंक्ति सं० 63-64)। कुछ भी छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। छोड़नी है – संसार के संग से सुख मिलने की आशा। ऐसा करने से भगवत्कृपा के प्रकाश और भगवत्‌प्रेम का अनुभव होने लगता है। उससे मन में आनन्द की वृद्धि होती है। किन्तु फिर यह सावधानी रखनी होगी कि उस आनन्द में रमण या उसका भोग न हो, अपितु भगवान्‌ की प्रीति के लिये निरन्तर कर्म होता रहे, तथा उत्साह और प्रफुल्लता में वृद्धि हो।

याद रखें, विषयों में सुख नहीं है, सुख एकमात्र भगवान्‌ में ही है।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥