पूज्य ‘नानाजी’ श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा जी का निकुंज प्रवेश उत्सव 2022

Calling Keertan

हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

The utsav began with Shodash Kirtan.

Followed by a small introduction and the following pad

2. Pad

Today everyone is welcome in the “Nikunj pravesh’ festival of pujya Nanaji.

Today’s festivities are being commenced with a verse that was Nanaji’s favourite. It was so dear to him that in May 2012 he took a separate Gita seminar on it. In this verse, Shri Tulsidasji Maharaj mentions his various relationships with His Lord. Nanaji explained that ‘haun’ means ‘I’ in Awadhi language. Tulsidasji says –

You are merciful, I am a destitute – therefore have mercy on me.

You are a beneficent giver, I am a beggar.

I am a famous sinner – You are the destroyer of the entire storehouse of sins.

In this way, after describing in various forms the various relationships with God, in the end Tulsidasji says that whatever relationship appeals to You, accept that – just take me under Your shelter anyhow.

So let us pray to our revered Nanaji that the kind of refuge in God he has been inspiring us for, today, by His grace, we are able to firmly hold that sentiment.

Pad

तू दयाल दीन हों, तू दानि, हौं भिखारी। हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पापपुंजहारी ।।

नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो । मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो।।

बहू हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो । तात, मात, गुरु, सखा तू सब विधि हितु मेरो ।।

तोहि मोहि नाते अनेक, मानिये जो भावे । ज्यों त्यों तुलसी कृपाल, चरन सरन पावै ।।

Meaning – (Tulsidasji is talking with Lord Ram and describing his various relationships with Him, he says) –

You are merciful, therefore, have mercy on this destitute, You are a beneficent giver and I am a beggar. I am famous amongst the sinners and You are the destroyer of the entire storehouse of sins, the cluster of sins. I am an orphan, who is more of an orphan than me, and You are the only guardian of all orphans. There is no one who suffers like me and You are the remover of all sufferings. You are the Supreme Soul and I am the individualized soul, You are my master and I am Your servant. You are my father, mother, teacher, friend and are my well-wisher in every respect. You and I have many relationships, whichever relationship appeals to You amongst all these, You accept that. O Merciful Lord ! consider any relationship, just take me in Your refuge anyhow.’

We have learnt from pujya Nanaji that after establishing a sweet relationship with God in this manner, when we start making effort to take refuge in Him, then gradually we begin to experience His compassion and His auspicious ordinance in every favourable-unfavourable conditions, ups and downs of the world. We start utilizing every circumstance for our spiritual practice, to strengthen our practice of Karmayog infused with devotion and to determinedly work on overcoming that point which needs self-rectification as indicated by that circumstance. The assurance given by Nanaji is that by doing this life not only becomes a game, it becomes an enjoyable game – with God and His love at its core.

Echoing the same sentiment is the next verse – in which Shri Radha is saying to Her beloved – Come My dear, let us play/celebrate Basant together on the banks of Yamunaji. As Nanaji would remind us – Yamunaji represents the flow of our actions infused with devotion, in Basant Ritu the entire Nature and all its aspects are very tender, new and conferring happiness – whether it is the flowers, the birds – and at the core of it all is the supreme, ever-blissful Shri Krishna. So, let us offer this prayer at the feet of Nanaji that we should also be able to behold this divine play of Shri Yugal Sarkar in our daily life —

Pad

चलो लाल खेलें बसंत मिलि जमुना जी के कूल

नव निकुंज नव नव ऋतु आई नव नव फूले फूल ।।

द्रुम डारिन बैठे नव पंछी बोलत अति अनुकूल।

नारायण उत नव बहार सुख इतमें तुम सुख-मूल ।।

Meaning

My dear ! let us play/celebrate Basant together on the banks of Yamunaji.

There is newness/new freshness in the grove, new (Basant/Spring) season has arrived, new flowers are blossoming.

New birds are sitting on the branches of the trees and chirping in very melodious voice.

Narayan Swami, the poet says there is the happiness of Spring all around – and at the root of all that happiness is the beloved Shyamsundar

 

Followed by SriRadha Naam Keertan. 

And to top it all, Nanaji’s address to all of us.

Radha Naam

Nanaji's address

मार्गदर्शन

उत्सव

मार्गदर्शन

उत्सव

राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥