नववर्ष सन्देश 2019

।। राधा ।।

।। नववर्ष माधुर्यमय हो ।।

श्रीयुगल सरकार, पूज्य संतों व गुरुजनों की असीम कृपा से हम पुनः एक नवीन वर्ष के स्वागत हेतु प्रस्तुत हैं। भगवान्‌ द्वारा प्रदान किये गये बुद्धि तत्त्व के सदुपयोग से इस अमूल्य मनुष्य-जीवन रूपी सरगम के आरोहात्मक व अवरोहात्मक अनुभवों को हम मधुर बना सकते हैं। इसके लिये श्रीमद्‌भगवद्‌गीता में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन दिया गया है –

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ।। ५ ।।

(यह योगारूढ़ता कल्याण में हेतु कही है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि) अपने द्वारा संसार-समुद्र से अपना उद्धार करे और अपनी आत्मा को अधोगति को न पहुँचावे, क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है, अर्थात्‌ और कोई शत्रु या मित्र नहीं है। (गीता ६/५)

इस वर्ष हम सभी अपने पशु-स्वभाव से अपना उद्धार करने को कटिबद्ध हो जायें अर्थात्‌ हम सभी अपने मित्र बनें। जो व्यक्ति धर्मग्रन्थों का अध्ययन कर उनमें प्रतिपादित सिद्धान्तों का दैनिक-जीवन में व्यवहार करते हुए अपने मन को पूर्णतया नियंत्रित कर ले, वही अपने साथ मित्रता का व्यवहार करता है।

गीता ३/३४ में भगवान्‌ कहते हैं कि इन्द्रियों में स्थित राग-द्वेष ही हमारे कल्याण-मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं। कोई भी अन्य व्यक्ति, वस्तु, घटना अथवा परिस्थिति हमारे शत्रु नहीं हैं। मनुष्य-जीवन में यह विलक्षण सामर्थ्य प्राप्त है कि बुद्धि के सदुपयोग से मनुष्य यह सुनिश्चित कर सकता है कि वर्तमान के कर्म, व्यवहार और विचार राग-द्वेष के भाव से भावित न होने पायें । आगामी वर्ष में हम अपने मित्र बनकर सर्वत्र मैत्री का विस्तार कर सकें, इसके लिये शास्त्र व पूज्य संत वचनों के आधार पर संकलित कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं –

१. दूसरे के कर्तव्यों को न देखकर प्रत्येक परिस्थिति में शास्त्र-मर्यादा के अनुसार अपने कर्तव्यों का सम्पादन करने की चेष्टा करें।

२. प्रायः हम परिस्थिति को सुधारने की चेष्टा करते हैं परन्तु वास्तव में परिस्थिति का विधान भगवान्‌ द्वारा हमारे स्वयं के सुधार हेतु होता है।

३. राग भगवान्‌ के चरणों में हो जिसमें सभी रूपों में व्यक्त भगवान्‌ को प्रेम प्रदान किया जाये। द्वेष अपने अन्तःकरण में छिपकर बैठे विकारों से हो।

४. अपना उद्धार करने हेतु निरन्तर नाम-जप तथा करुणामय प्रभु का चिन्तन करते हुए कातर भाव से भगवान्‌ के चरणों में इन शत्रुओं से मुक्त होने की शक्ति की याचना करें।

राग-द्वेष से मुक्त होते ही अन्तःकरण में अद्‌भुत हल्कापन का अनुभव होता है तथा नवीन शक्ति और उत्साह का संचार होता है। इस प्रकार इस नव-वर्ष में अपने, अपने स्वजनों तथा सम्पूर्ण संसार के साथ मित्रता कर, सभी सम्बन्धों में प्रेम व सौहार्द का विस्तार कर हम जीवन को मधुरता से भर लें।

इन शुभकामनाओं सहित सभी को नव-वर्ष की बहुत बधाई।

नववर्ष-२०१९

 

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥