(सन्देश १७) – नवम्बर 2011 का प्रथम पाक्षिक निवेदन –
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि आसक्ति से रहित होकर केवल यज्ञ के निमित्त ही भली-भाँति कर्तव्य-कर्म करना मनुष्य के लिये उचित है (गीता ३/९) | फिर गीता ३/१४ व १५ में भगवान् कहते हैं कि सर्वव्यापी परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है। यज्ञों के कुछ प्रकार गीता ४/२४ से ३० में बताकर फिर श्लोक सं० ४/३२ में भगवान् ने कहा कि इस प्रकार बहुत से यज्ञों का विधान वेद में विस्तार से कहा गया है। अध्याय ९ श्लोक सं० २७ में भगवान् ने आज्ञा दी है कि मनुष्य जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, उस सब को भगवान् को ही अर्पण करना श्रेयस्कर है। इस प्रकार भगवान् द्वारा अनुमोदित कर्मों को उनकी दी हुई शक्ति से, उनकी प्रीति के लिये करने से और फल उनको अर्पण करने से वे कर्म यज्ञ बन जाते हैं।
इन विविध प्रकार के यज्ञों में जप-यज्ञ को भगवान् अपना स्वरूप बताते हैं (गीता १०/२५) जप-यज्ञ सबसे अधिक निरापद, सबसे अधिक सुगम और तत्काल फल देने वाला है, क्योंकि भगवान् का नाम भगवान् के स्वरूप से भिन्न नहीं है। थोड़ी सी इच्छा होने पर ही मनुष्य की जिह्वा पर अपने नाम के रूप में भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं। मनुष्य का यह कितना महान् सौभाग्य है कि थोड़ी सी इच्छा होते ही अखिल ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान्, नाम के रूप में उसके पास आने के लिये उद्यत रहते हैं। जिहवा पर भगवान् का नाम होते हुए मन किसी अन्य ओर जाये तो यह बड़ा ही अनर्थ है। किसी साधारण व्यक्ति के आने पर मनुष्य थोड़ी सी देर के लिये उसको अपना ध्यान देता ही है, फिर सर्वलोक महेश्वर भगवान् के आने पर उनकी ओर ध्यान ही न देना तो अत्यन्त अनुचित है।
इसलिये भगवान् का नाम-जप करने में यह संकोच नहीं होना चाहिये कि लोग हमें नाम-जप करते देखेंगे तो क्या कहेंगे। अवश्य ही प्रदर्शन के लिये नाम-जप करना अनुचित है, किन्तु नाम-जप करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये। यह सावधानी आवश्यक है कि सार्वजनिक स्थानों में जोर-जोर से बोलकर नाम-जप करने से अन्य लोगों को अपने कार्य में बाधा पहुँच सकती है, किन्तु चुपचाप मन ही मन तो हर समय नाम-जप हो ही सकता है। इसीलिये संत कहते हैं कि निर्लज्ज होकर नाम-जप करना चाहिये।
नाम-जप के सम्बन्ध में कुछ भ्रमपूर्ण धारणायें समाज में प्रचलित हैं, जिनका निराकरण परम पूज्य बाबूजी ने अपनी पुस्तक ‘भगवन्नाम-चिन्तन’ में स्पष्ट रूप से किया है (“आनन्द-यात्रा” प्रथम पुष्प पृ.१०८ देखें |)
उपसंहार – नाम महिमा के विषय में अवश्य पढ़ें तथा पढ़कर आदर सहित उसको धारण करें:-
१. परम पूज्य बाबूजी द्वारा रचित ‘भगवन्नाम-चिन्तन’।
२. नाम-महिमा पर रामचरितमानस में बालकाण्ड के दोहा सं० १९ से दोहा सं० २८ चौ.१ तक; तथा उत्तरकाण्ड में दोहा सं० १०२(क) से दोहा सं० १०३(क) तक।
नाम-जप में तत्परता से लग जाने से जीवन उल्लासमय हो जाता है, आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं तथा भगवान् में अविचल प्रेम हो जाता है।
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