लोकसंग्रह

(सन्देश १५) – अक्टूबर 2011 का प्रथम पाक्षिक निवेदन –

 

१.  भगवान्‌ ने कर्मयोगी को लोकसंग्रह को दृष्टि में रखते हुए ही कर्म करने की आज्ञा दी है (गीता ३/२०) | इसके लिए उन्होंने राजर्षि जनक का उदाहरण दिया है तथा निरासक्त होकर निरन्तर कर्तव्य-कर्मों को करने के लिए कहा है (गीता  ३/१९)। केवल सत्कर्म ही कर्तव्य कर्म हो सकते हैं।

२.  सत्कर्म – अपना कल्याण करने के इच्छुक व्यक्तियों को परम पूज्य बाबूजी ने अपनी अतुल सम्पत्ति में भागीदार होने के लिये अनुमति दी है। अपनी अतुल सम्पत्ति का वर्णन उन्होंने निम्नांकित शब्दों से किया है –

  1.   सब में परमात्मा को देखना,
  2.   भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास,
  3.   भगवन्नाम का अनन्य आश्रय

इन भावों से प्रेरित होने वाले सभी सत्कर्म करने से लोकसंग्रह सुगमतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। लोकसंग्रह से समाज और परिवार सुव्यवस्थित और सुसंगठित होते हैं। ऐसा करना ही आवश्यक कर्तव्य है। आवश्यक कर्तव्य वे हैं जो यज्ञ, दान एवं तप करने के भाव से प्रेरित होते हैं (गीता १८/५)। इसीलिये जो भी कर्म आवश्यक समझते हुए हम लोग वर्तमान में करते हैं, उन्हें छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। केवल उनके प्रेरक भावों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है, यदि इन भावों का मेल सत्कर्म के उपरोक्त ३ भावों से न हो।

लोकसंग्रह का सरल अर्थ है शास्त्रोक्त कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से केवल सामाजिक व्यवस्था की पुष्टि तथा भगवान्‌ के सृष्टि चक्र में योगदान देने के भाव से करना। इसके लिए सांसारिक सुख, धन-सम्पत्ति या मान-सम्मान की कोई इच्छा न रखते हुए अपने प्रत्येक कर्म को केवल यज्ञ-रूप में करना चाहिए। इसमें छोटे-बड़े सभी कर्म सम्मिलित हैं – जीविकोपार्जन, गृहस्थी की सम्भाल, पढ़ाई, सामाजिक नियमों का पालन आदि। इन कर्मो को इस उत्कृष्ट सेवा-भाव और दक्षता के साथ किया जाना चाहिए कि ‘मेरे माध्यम से भगवान्‌ विष्णु ही अपनी प्रजा का पालन कर रहे हैं’। इस प्रकार लोकसंग्रह के लिये कर्म करने से सभी लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः हो जाती है।

भगवान्‌ ने (गीता ३/२५) में कहा है कि इन कर्मों में तत्परता एवं लगन का वही स्तर होना चाहिए जो अज्ञानी एवं कर्म और कर्मफल में रचे-पचे हुए लोगों का होता है। भगवान्‌ ने यह भी बताया है कि लोक-संग्रह की दृष्टि से कर्म करने वाले कर्मयोगी को परम सिद्धि की प्राप्ति अर्थात्‌ भगवत्प्राप्ति शीघ्र होती है (गीता ५/६)। ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगों पर भी उस व्यक्ति का प्रभाव पड़ता है और वे भी फिर कर्मयोग में प्रवृत्त हो जाते हैं (गीता ३/२१), क्योंकि अन्य लोगों की दृष्टि में ऐसा मनुष्य ही श्रेष्ठ होता है (गीता ३/७)।

३.  प्रचलित भ्रमपूर्ण मान्यता – कुछ लोग ‘“लोकसंग्रह” का यह तात्पर्य समझते हैं कि सांसारिक वस्तुओं अथवा भोग सामग्री को बटोरना कदाचित्‌ लोक संग्रह है। ऐसा समझना भारी भूल है। यह तो “भोग-संग्रह” है, जो सारे अनिष्टों का मूल कारण है। स्वार्थ, कामना, आसक्ति, ममता इत्यादि भावों की संलग्नता से किये गये कर्म असत्‌ होते हैं। असत्‌ कर्मों को करने से न तो इस लोक में कल्याण होता है और न परलोक में ही (गीता १७/२८)। अतः इन भावों को त्यागने से ही कर्म सत्कर्म की श्रेणी में आ सकते हैं।

सत्कर्म के भावों से प्रेरित कर्मों को निरन्तर बढ़ते हुए उत्साह एवं लगन से किया जाना चाहिये। ऐसा करने से परमात्मा की कृपा का अनुभव हो जाता है और उससे कर्म करने वाले को सभी आवश्यक सुविधायें अपने आप प्राप्त हो जाती हैं – योगक्षेमं वहाम्यहम्‌(गीता ९/२२)।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥