मार्च २०११ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन-
मनुष्य जीवन के एकमात्र कर्तव्य अर्थात् भगवत्प्राप्ति के लक्ष्य की मुख्य बाधा सांसारिक कामनाओं की पूर्ति करने की चेष्टा है। ये कामनायें अधिकांश रूप में निम्नांकित तीन वस्तुओं को प्राप्त करने की होती हैं, जिन्हें भोग और ऐश्वर्य के लिये आवश्यक समझा जाता है :-
१. शारीरिक सुविधाओं के लिये धन-सम्पत्ति का अर्जन।
२. समाज में मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा आदि जिससे उपरोक्त सुविधायें प्राप्त हो सकें।
३. दाम्पत्य एवं पारिवारिक सुख।
दुःख की बात यह है कि इन कामनाओं की पूर्ति के लिये मनुष्य अपने को पर-पीड़ा, पाप तथा निषिद्ध कर्म करने में, कभी-कभी इच्छा न होने पर भी, विवश समझता है। इसीलिये गीता में कर्मयोग के अध्याय सं०३ में भगवान् ने श्लोक सं० ३७ से लेकर अध्याय के अन्तिम श्लोक सं० ४३ तक इन कामनाओं को इस संसार में पापमूलक, ज्ञान का वैरी एवं मनुष्य का एकमात्र शत्रु बताते हुए इनको प्रयत्नपूर्वक समाप्त करने की आज्ञा दी है। जैसा कि प्रथम पाक्षिक संदेश में बताया जा चुका है, इन वस्तुओं की प्राप्ति कर्मयोग का आचरण करने से उपयुक्त एवं उचित मात्रा में भगवत्कृपा से अपने आप होती रहती है। कर्मयोग का आचरण करने के लिये सारे शास्त्रानुमोदित कर्मों को यज्ञ-रूप से करने का अनुरोध किया है (३/९,१०)।
भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये प्रयास करने से सर्वप्रथम मनुष्य की चेतना का हरण हो जाता है(२/४४)। इसके पश्चात् इनकी प्राप्ति के लिये चिन्तन करने मात्र से क्रमशः क्रोध की उत्पत्ति, बुद्धि-नाश तथा मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है (२/६२,६३)। कामनाओं को नियंत्रित करने की शक्ति हर मनुष्य को बुद्धि के रूप में भगवान् द्वारा प्रदान की गयी है। यदि बुद्धि नियमित जप, स्वाध्याय, सत्संग एवं अग्निहोत्र द्वारा निरन्तर आत्मतत्त्व के सम्पर्क में रहे, तो वह तुरन्त इस योग्य हो जाती है कि मन, इन्द्रियों और शरीर को अपने नियंत्रण में रखे (३/४२)। यदि ऐसा किया जाये, तब तो कामनाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है। किन्तु कामना पूर्ति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने से मनुष्य को घोर अनर्थो, क्लेशों एवं उलझनों के जाल में फंसना पड़ता है, जिनसे मुक्त होने की सम्भावना क्षीण एवं क्षीणतर होती जाती है। अन्त में जीव को घोर यातनामयी योनियों में अर्थात् कीड़े-मकोड़े, कुत्ते-सूअर आदि की योनियों में भगवान् बार-बार जन्म देते हैं (१६/१९-२०)। इस कारण कल्याण प्राप्ति के लिये एकमात्र कर्तव्य अर्थात् भगवत्प्राप्ति हेतु चेष्ठा करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है।
निष्कर्ष :- जो भी धर्मसंगत,न्यायसगंत कर्तव्य किया जा रहा हो उसे त्यागने की कोई आवश्यकता नहीं है, वह तो उत्साहपूर्वक किया जाना ही चाहिये। किन्तु, आवश्यकता है उस सांसारिक कामना के त्याग की जिसकी प्रेरणा से वह कर्म किया जा रहा हो, तथा आवश्यकता है उस फल से सुख लेने की इच्छा के त्याग की। इच्छा होनी चाहिये लोक-संग्रह की(४/२०)। इसके अतिरिक्त कल्याण का कोई अन्य मार्ग नहीं है। यही कर्म करने में कुशलता है, चतुराई है तथा यही कर्मयोग है (२/४७, ५०)।
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