कामना-पूर्ति तथा कर्त्तव्य-पालन

अप्रैल २०११ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन-

 

“अपनी पसंदगी मन से सर्वथा निकाल दीजिये।” …. (आस्तिकता’-सार, पृ०३, पंक्ति ४)

१.  मन में समय-समय पर भाँति-भाँति की स्फुरणायें उठा करती हैं। उसी समय यह निश्चित कर लेना चाहिये कि यह स्फुरणा कामनापूर्ति की है अथवा कर्त्तव्यपालन की। इसकी सीधी परीक्षा यह है कि कामनापूर्ति में सफल होने पर मन में हर्ष होता है तथा असफल होने पर शोक। सफलता के हर्ष में उस फल को भोगकर सुख पाने की इच्छा तथा आलस्य/प्रमाद में प्रवृत्ति होती है। असफलता में शोक से आगे कर्त्तव्य न करने का मन होता है। इसके विपरीत, कर्त्तव्यपालन में सफल हो जाने पर मन में प्रसन्‍नता तथा पुनः कर्त्तव्य में लगने का उत्साह रहता है। असफल हो जाने पर मन में अपनी त्रुटि सुधारने और योग्यता बढ़ाने का धैर्य तथा उत्साह रहता है।

२.  कामना बहुधा कर्त्तव्य का रूप धारण कर मन को धोखा देती है। उपरोक्त परीक्षण से मन कर्त्व्यपालन में स्थिर हो जाता है। स्फुरणा उठते ही सोचें… अगर इस चेष्टा में मुझे असफलता मिले तो क्‍या मन में उत्साह भंग होगा?….. यदि होता है, तो समझ लें कि चेष्टा की प्रेरणा कामना है, कर्त्तव्य नहीं।

३.  कामनापूर्ति के प्रयास में शारीरिक एवं मानसिक सामर्थ्य का क्षय होता है। कर्त्तव्यपालन को यज्ञ-रूप करने के प्रयास में आवश्यक सामर्थ्य स्वयं प्राप्त हो जाती हैं। यह नियम है यज्ञ के लिए सामर्थ्य भगवान्‌ देते हैं (३/९)।

४.  कामना सदैव असत्‌ वस्तुओं की होती है, जिनका आरम्भ तथा अन्त होता है। इसलिये वे वस्तुएं क्षणिक ही होती हैं। कर्त्तव्यपालन से चिरस्थायी आनन्द की प्राप्ति होती है, जो परिस्थिति पर निर्भर नहीं। मन में संतोष रहता है कि कर्त्तव्य पूरी सामर्थ्य से किया, भगवान्‌ की सेवा का अवसर मिला, भगवत्‌स्वरूप तक बढ़ने में एक और कदम चल सका, इनसे आनन्द का अनुभव होता है।

५.  कामनापूर्ति के लिये सदैव अन्य वस्तुओं एवं व्यक्तियों का आलम्बन लेना पड़ता है। कर्त्तव्यपालन में स्वावलम्बन का उत्साह रहता है तथा प्राप्त वस्तुओं का उपयोग मात्र होता है। यज्ञ के लिए प्रकृति के हर अंग (व्यक्ति, वस्तु परिस्थिति) से अपने आप प्रेमपूर्वक सहयोग, बिना माँगे मिलता है।

६.  कामनापूर्ति के प्रयास में पाप एवं अधर्म करना आवश्यक प्रतीत होने लगते हैं। कर्त्तव्यपालन में धर्मपालन तथा पुण्यकर्म ही रहते हैं। यह विश्वास रहता है कि भगवान्‌ जो कुछ उचित और मंगलकारी समझते हैं, वह ही होगा, तो मैं अधर्म करके उसके दुःखद फल को क्यों आमन्त्रित करूँ?

७.  कामनापूर्ति के लिये कर्म करने से वैर, हिंसा, क्रोध, सन्देह तथा ईर्ष्या आदि दुर्गुण मन को चलायमान रखते हैं। कर्त्तव्यपालन करने से मैत्री, आदर, प्रेम, निश्चिन्तता तथा विश्वास आदि सदूगुण मन को स्थिरता प्रदान करते हैं।

८.  जीवन में निरन्तर बढ़ने वाली शान्ति प्राप्त करने के लिये सतत्‌ कर्त्तव्यपालन की ही एकमात्र “कामना” मन में सदैव रहनी चाहिये। केवल यही “कामना” मनुष्य-जीवन में प्राप्त करने योग्य है, इसी की प्राप्ति के लिये मनुष्य-जीवन मिला है एवं यही कामना पूर्ण रूप से सफल भी होती है।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥