एक ही कर्त्तव्य

मार्च २०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन-

 

भारत के प्रत्येक महापुरुष, संत, महात्मा, ऋषि, महर्षि आदि का यही निर्णय है कि मनुष्य जीवन में अवश्य प्राप्त होने वाला एक ही लक्ष्य है – भगवान्‌ से एकात्मता हो जाना। भगवान्‌ सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ एवं सर्वसुहद हैं, तथा उनसे एकात्मता होने का फल है – उनकी इन विशेषताओं में भागीदार हो जाना। इसके लिये किसी विशेष आयु, अवस्था, परिस्थिति, सामर्थ्य, समय आदि की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। यही मनुष्य जीवन के लिये एकमात्र कर्तव्य एवं प्राप्तव्य है और इसी की प्राप्ति के लिये भगवान द्वारा मनुष्य शरीर दिया गया है।

भगवत्प्राप्ति जब होती है, पूरी की पूरी होती है, सदा के लिये होती है और प्रत्येक मनुष्य को हो सकती है। इसके विपरीत संसार का कोई भी पदार्थ, वस्तु, परिस्थिति, धन-सम्पत्ति, पद-पदवी, प्रतिष्ठा, कौटुम्बिक सुख इत्यादि ऐसा नहीं है जो पूरा का पूरा, सदा के लिये और सबके लिये प्राप्त होना सम्भव हो।

भगवत्प्राप्ति के लिये केवल मन और बुद्धि का दृढ़ निशचय होना ही पर्याप्त है। संसार की कोई ऐसी लालसा नहीं है जिसकी पूर्ति केवल निशचय से हो जाये। लक्ष्य निश्चित हो जाने पर वह स्वयं अपनी प्राप्ति का पूरा सामर्थ्य और समय प्रदान कर देता है। इसकी प्राप्ति में मुख्य बाधाएँ हैं रजोगुण और तमोगुण की अधिकता । रजोगुण के कारण सारे कर्म भगवत्प्राप्ति के लिये न होकर सांसारिक कामनाओं की पूर्ति की ओर लग जाते हैं। इसी के कारण मन में चंचलता, उद्देग, अशान्ति, क्रोध आदि जीवन के क्लेश मनुष्य को आ घेरते हैं। तमोगुण की अधिकता से निष्क्रियता, आलस्य, प्रमाद, हताशा आदि से जीवन आक्रान्त हो जाता है। मनोरंजक बात यह है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति जैसे-जैसे स्पष्ट होती है, तैसे-तैसे आवश्यक सांसारिक भोग यथा धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान, कौटुम्बिक सुख और अन्य सासांरिक सुविधाएं अपने आप प्राप्त होते हैं। उनके लिये अलग से कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता।

शरीरधारी होने के कारण मनुष्य को कुछ न कुछ कर्म करने की प्रेरणा हर समय होती रहती है। यदि वे सब कर्म शास्त्रानुमोदित हों, तत्त्वज्ञ सत्पुरुषों के मार्ग निर्देशन के अनुसार हों तथा उनका फल भगवान्‌ को समर्पित हो अर्थात्‌ वे लोकहित में हों, तो फिर अन्य कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं रहती ।

वास्तव में पूर्व में धारण किये हुए असंख्य मनुष्य जन्मों के संस्कारवश वर्तमान मनुष्य जन्म में कर्म करने की स्फुरणा होती है। इस स्फुरणा की पूर्ति के लिये उपरोक्त दिशा में कर्म करने से रजोगुण से उत्पन्‍न होने वाले सारे पाप और तमोगुण से उत्पन्‍न होने वाले सारे शोक और विषाद दूर हो जाते हैं, जीवन अपने सब अंगों में आनन्दमय हो जाता है और इसी संसार में रहते हुए शरीरान्त होने से पूर्व ही मनुष्य भगवत्स्वरूप हो जाता है।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥