दुःख-संयोग का वियोग

(सन्देश १९) – दिसम्बर 2011 का प्रथम पाक्षिक निवेदन –

 

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“दुःख-संयोग का वियोग” 

श्रीमद्‌भगवद्‌गीता के अध्याय सं० ६ के श्लोक सं० २३ में भगवान्‌ कहते हैं –

तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।

अर्थात्‌ जो दुःखरूप (संसार के) संयोग से राहित है; उसको जानना चाहिये। उस्ती का नाम “योग” है। उस योग को न उकताये हुए वित्त, अर्थात्‌ धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से, दृढ़ निश्वय करके  जानना तथा करना ही (मनुष्य का) कर्त्तव्य है।

 इस श्लोक में भगवान्‌ ने ‘योग’ की परिभाषा दी है कि दुःख-संयोग से वियोग हो जाना ही “योग’ है। इसे भली प्रकार समझकर हृदयंगम करने से मनुष्य सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।

योगसञ्ज्ञितम् दु:खसंयोगवियोगं – यहाँ “दुःखसंयोग” उस नासमझी का वाचक है, जिसके कारण नित्य मिटते हुए एवं स्वतः स्पष्ट शरीर सम्बन्धी पारिवारिक सम्बन्धों, धन-सम्पत्ति आदि वस्तुओं, पद-प्रतिष्ठा आदि परिस्थितियों एवं दाम्पत्य-सुख आदि अनुभवों को मनुष्य सदैव स्थिर रहने. वाला मान बैठता है। यह नासमझी ही मनुष्य के दुःखों का कारण है। यह सभी का अनुभव होगा कि इन भोगों के अर्जित करने में भी दुःख, संरक्षण में भी दुःख और नष्ट होने पर तो दुःख ही दुःख  हाथ लगता है। इस नासमझी से वियोग कर लेना ही “योग” है। यह योग उस परमात्म-सत्ता के साथ होता है जो सदैव है तथा सदैव रहेगा। ऐसा होने पर धर्मसंगत, शास्त्र-विहित कर्मों में उन नित्य परिवर्तनशील सांसारिक संयोगों का केवल उपयोग होता है। इन कर्मो को स्वार्थ-रहित एवं अहंकार-रहित भाव से सम्पन्न कर मनुष्य अक्षय सुख की प्राप्ति करता है। इस अक्षय सुख का विस्तार से उल्लेख इसी अध्याय के श्लोक सं० २० से २२ में भगवान्‌ ने स्पष्टतया किया है।

तं विद्यात्‌ अर्थात्‌ “उसे जानना चाहिये! – यह पद आदेश-वाक्य है। इसे भगवान्‌ की आज्ञा समझना चाहिये, क्योंकि इसे ही करना मनुष्य जीवन का लक्ष्य है और इसी के लिये जीव को भगवान्‌ की कृपा से मनुष्य-शरीर मिलता है। इसे न करने से मनुष्य सदैव एक के बाद एक दुःख में फंसा रहता है।

स निश्चयेन योक्तव्यो – इस योग को सिद्ध करने के लिये दृढ़ निश्चय आवश्यक है, जो बुद्धि के व्यवसायात्मिका होने पर ही हो सकता है। इसके लिये भोग और ऐश्वर्य आदि अनित्य किन्तु भ्रम-पूर्वक माने हुए सांसारिक सुखों की ओर से मन को दृढ़तापूर्वक हटा लेना चाहिये (गीता २/४४)। यह पद भी आदेश-वाक्य है।

योगोऽनिर्विण्णचेतसा  – भगवान्‌ भली प्रकार जानते हैं कि योग सिद्ध करने के आरम्भ में मनुष्य जिस उत्साह और उल्लास से लगता है, कुछ दिन बाद वह उससे उकताने भी लगता है। इसलिये इस पद में भगवान्‌ चेतावनी देते हैं कि ऐसा होने पर उसके निश्चय की दृढ़ता ही उसके काम आयेगी । इसके लिये नित्य स्वाध्याय तथा सत्संग की आवश्यकता है। अन्यथा भ्रमपूर्ण सांसारिक मान्यताओं के तीव्र वेग से मनुष्य का चित्त हिलने लगता है। इसलिये भगवान्‌ ने इस सावधानी को दृढ़तापूर्वक रेखांकित किया है।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥