शुभ दीपावली (2017)

।। श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ।।

 

दीपावली के अवसर पर चौपड़ (जुआ) खेलने की प्राचीन परम्परा भारत में चली आ रही है। खेलों में इसे अत्यन्त निकृष्ट समझा जाता है क्योंकि इस खेल में मनुष्य बहुधा अपना सर्वस्व भी हार जाता है। श्रीमद्‌भगवद्‌गीता के १०वें अध्याय के श्लोक सं० ३६ में भगवान्‌ ने घोषणा की है – “धूतं छलयतामस्मि…” अर्थात्‌ छलने वालों में द्यूत (जुआ) मैं ही हूँ ! । द्यूत-क्रीड़ा को अपनी विभूति बताकर भगवान्‌ इस खेल को महिमामण्डित नहीं कर रहे हैं अपितु अपनी उस शक्ति की ओर इंगित कर रहे हैं जिसके वश में होकर एक क्षण में मनुष्य अपना सर्वस्व अर्थात्‌ देह भाव को हार जाता है। वास्तव में भगवत्प्रेम हुए बिना सांसारिक विषयों की ओर से वैराग्य होना असम्भव है। भगवत्प्रेम प्राप्ति का सुगम साधन है – “निरंतर भगवन्नाम का आश्रय” । भक्तप्रवर श्री सूरदासजी ने आगामी पद में उस ‘दिव्य चौपड़’ का अत्यन्त मार्मिक वर्णन किया है, जिसको खेलकर मनुष्य के हृदय में वैराग्य व भगवत्प्रेम का बीज अंकुरित हो जाता है।

इस दीपावली के मंगल पर्व पर हम सब भी इस दिव्य चौपड़ में भाग लेकर अपनी सारी सांसारिक आसक्तियों व विषयानुराग को दाव पर लगा दें। ऐसा कर अपने अमूल्य मानव-जीवन में भगवत्प्रेम व भगवन्नाम रूपी दीपक प्रज्वलित करें।

दिव्य चौपड़

चौपरि जगत मड़े जुग बीते।
गुन पाँसे, क्रम अंक, चारि गति, सारि न कबहूँ जीते ।।

चारि पसार दिसानि, मनोरथ घर, फिरि फिरि गिनि आनै।
काम-क्रोध-मद-संग मूढ़ मन खेलत हार न मानै।।

बाल-बिनोद बचन हित, अनहित बार-बार मुख भाखै।
मानौ बग बगदाइ प्रथम दिसि आठ-सात-दस नाखै।।

षोड़स जुक्ति, जुबति चित षोड़स षोड़स बरस निहारै।
षोड़स अंगनि मिलि प्रजंक पै छ-दस अंक फिरि डारै।।

पंद्रह पित्र-काज, चौदह दस-चारि पठे, सर साँधे।
तेरह रतन कनक रूचि द्वादस अटन जरा जग बाँधे।।

नहिं रूचि पंथ, पयादि डरनि छकि पंच एकादस ठानै।
नौ दस आठ प्रकृति तृष्ना सुख सदन सात संधानै।।

पंजा पंच प्रपंच नारि-पर भजत, सारि फिरि मारी।
चौक चबाउ भरे दुबिधा छकि रस रसना रूचि धारी।।

बाल, किसोर, तरून, जर, जुग सो सुपक सारि ढिग ढारी।
सूर एक पौ नाम बिना नर फिरि फिरि बाजी हारी।।

अर्थ- संसाररूपी चौपड़ को बिछाये हुए युग बीत गये (अनादिकाल से जीव संसारचक्र में पड़ा है)। त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) के पासों से, कर्म के अंकों से, चारों गति (बाल्य, कैशोर, यौवन एवं वार्धक्य) से कभी भी ‘सारि’ (गोटी) जीती नहीं गयी (कभी भी जीव संसार-चक्र से मुक्त नहीं हुआ) चारों दिशाओं के चारों फैलावों में मनोरथ-रूपी धरों (कोष्ठकों) में बार-बार गिनकर (गोटी) लौटा लाता है (बार-बार नाना मनोरथ करके संसार में ही फँसा रहता है) । यह मूर्ख मन काम, क्रोध और मद के साथ बराबर खेल रहा है, पर हार नहीं मानता (उपरत नहीं होता) बालकों के विनोद के समान (जैसे चौपड़ देखने वाले बच्चों के समान आवेश में अटपटे व्यंग करते हैं, वैसे ही) बार-बार मुख से भलाई और बुराई के (मृदु-कठोर) वचन कहता रहता है। मानो प्रतिपक्षी के दाव को एक ओर टालकर (सांसारिक अभावों को एक बार कुछ पूरा करके) आठ, सात और दस अंक डालता है (आगें प्रहर, सातों द्वीपों में, दसों दिशाओं में सफलता पाने के लिये भटकता है)।

सोलह युक्तियों से (सम्पूर्ण प्रयत्न से) सोलहों श्रृंगार से युक्त षोडशवर्षीय (युवती) के चित्त (मिज़ाज) को देखता है (उसकी कृपादृष्टि को जोहता रहता है), शय्या पर उसके साथ सोलहों अंकों से (सम्पूर्ण शरीर से) मिलता है, (यह स्त्री-सहवास ही) मानो (जुए में) सोलह अंक डालता है। पंद्रह अंक डालना पितृ-कार्य (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय एवं रूप, रस, गन्ध, शब्द तथा स्पर्श के भोग से गर्भाधान-संस्कार करना) है, चौदहों भुवनों में जीव का भटकना चौदह का अंक डालना है, यह शर सदा संधान किया रहता है (जीव सदा भटकता ही रहता है)। रत्नों और स्वर्ण (धन) का लोभ तेरह का अंक डालना है (स्वर्ण-साधना की तेरहों युक्तियाँ अपनाना है)।

वार्धक्यसे सारा जगत बाँधा है (सभी जीव एवं पदार्थ एक दिन बूढ़े होंगे), ऐसे (जीर्ण होते जगत में) बारहों महीने (सदा) घूमना ही बारह का अंक डालना है। सन्मार्ग में रुचि नहीं है, यही मानो प्यादों का भय है; छका-पंजा (धोखा धड़ी) करके ग्यारहका अंक डालता है (दसो इन्द्रियों और मनको संसार में निमग्न रखता है)। नौ, दस और आठ में अंक डालना प्रकृति से प्राप्त नौ द्वारके शरीरको तृष्णा से (पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रियों के पोषण की लालसा से) सुख (आठों सिद्धियों की प्राप्ति) की इच्छा करना है। फिर सात घर मारना (सप्तद्वीपवती पृथ्वी को जीतना) चाहता है। पाँचशर कामदेव से पीड़ित हो पर-स्त्री में अनुरक्त होना ही पाँच का अंक डालना है, जिससे फिर ‘सारि’ मारी जाती (सफलता नष्ट होती) है। चबाउ-पर-निन्दा में लगना ही चार का अंक डालना है। संशयग्रस्त (जीव) की जिह्वा इसी (निन्दा) रस में छकी रहती है और यही रुचि उसने धारण कर रखी है (परनिन्दा ही प्रिय लगती है और उसी में सदा लगा रहता है)।

सूरदास जी कहते हैं- बाल्य, कैशोर, तारुण्य एवं बुढ़ापा – ये चारों अवस्थाएँ चार गतियों के समान हैं, जिन्हें युगों से (अनादिकाल से) ‘सारि’ (गोटी) पकने के पास (चलने के स्थान पर) डालता है (मनुष्य-जीवन जो मोक्ष का द्वार है, उस अवसर की चारों अवस्थाओं को व्यतीत कर देता है), किंतु एक हरिनाम रूपी ‘पौ” (भगवन्नाम के आश्रय) के बिना मनुष्य बार-बार बाज़ी हार जाता (मुक्त न होकर संसार में ही भटकता रहता) है।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥