त्रिगुण-विज्ञान(१)

मई मास का द्वितीय पाक्षिक निवेदन-   प्रकृति के तीन गुण विख्यात हैं – सत्‌, रज तथा तम। इन गुणों के भली प्रकार ज्ञान को भगवान्‌ सब ज्ञानों में सर्वोत्तम बताते हैं (गीता – १४/१)। उनका आश्वासन है कि इस ज्ञान के आलम्बन से मनुष्य भगवान्‌ के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है (गीता – […]

श्रद्धा और विश्वास

मई-२०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन-   साधन मार्ग पर चलने में दो भाव अत्यन्त आवश्यक हैं- श्रद्धा और विश्वास । श्रद्धा मन का वह भाव है जिसके आधीन अपने विचारों और कर्मों को करने से ही मनुष्य अपना कल्याण निश्चित होना सम्भव समझता है। विश्वास मन का वह भाव है जिसके आधार पर मनुष्य यह […]

कामना-पूर्ति तथा कर्त्तव्य-पालन

अप्रैल २०११ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन-   “अपनी पसंदगी मन से सर्वथा निकाल दीजिये।” …. (आस्तिकता’-सार, पृ०३, पंक्ति ४) १.  मन में समय-समय पर भाँति-भाँति की स्फुरणायें उठा करती हैं। उसी समय यह निश्चित कर लेना चाहिये कि यह स्फुरणा कामनापूर्ति की है अथवा कर्त्तव्यपालन की। इसकी सीधी परीक्षा यह है कि कामनापूर्ति में सफल […]

सांसारिक कामनाओं पर नियन्त्रण कैसे हो?

अप्रैल २०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन- (जीवन-विज्ञान के छठे संस्करण का मानचित्र सं० २ “भाव के अनुसार गति” सामने रखें)   १. भगवत्प्राप्ति के लक्ष्य पर दृष्टि स्थिर हो जाने पर आवश्यक सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिये अलग से कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। यथा –  “जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना […]

लक्ष्य-प्राप्ति की मुख्य बाधा

मार्च २०११ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन-   मनुष्य जीवन के एकमात्र कर्तव्य अर्थात्‌ भगवत्प्राप्ति के लक्ष्य की मुख्य बाधा सांसारिक कामनाओं की पूर्ति करने की चेष्टा है। ये कामनायें अधिकांश रूप में निम्नांकित तीन वस्तुओं को प्राप्त करने की होती हैं, जिन्हें भोग और ऐश्वर्य के लिये आवश्यक समझा जाता है :- १.  शारीरिक सुविधाओं […]

एक ही कर्त्तव्य

मार्च २०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन-   भारत के प्रत्येक महापुरुष, संत, महात्मा, ऋषि, महर्षि आदि का यही निर्णय है कि मनुष्य जीवन में अवश्य प्राप्त होने वाला एक ही लक्ष्य है – भगवान्‌ से एकात्मता हो जाना। भगवान्‌ सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ एवं सर्वसुहद हैं, तथा उनसे एकात्मता होने का फल है – उनकी इन […]

5 आनंद बिंदु -नानाजी

”कर्त्तव्यपालन में अत्यन्त सावधान रहें – अपनी हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें” १. वर्तमान में परिस्थितिवश जो कुछ हमारे साथ होता है, वह उस कर्म का फल है जो भूतकाल में कभी हमने किसी अन्य के साथ ठीक कर्तव्य समझकर किया है। आज जो कुछ हम ठीक कर्तव्य समझकर कर रहे हैं, उसका फल हमें […]

आस्तिकता सार के विषय में

॥ राधा ।।   1.  दिनांक १०.०३.११ को सभी सदस्यों को ई-मेल द्वारा परम पूज्य राधा बाबा की पुस्तक “आस्तिकता की आधारशिलाएँ” में से तीन लेख भेजे गए थे। सब की सुविधा के लिए इस लेख-समूह को अब से ‘आस्तिकता-सार’ नाम से सम्बोधित किया जा रहा है। 2. “आस्तिकता’-सार के उपरोक्त ३ लेखों के बाद […]

सास-बहू का झगड़ा

॥ राधा ।। (श्री सिन्हा ने इस लेख का शीर्षक यह रखा है किन्तु यह हर सम्बन्ध पर लागू होता है) आज कल प्रायः देखने में आता है कि माता-पिता अपने विवेक का आश्रय लेकर अपने पुत्र का विवाह करते हैं किन्तु विवाहोपरान्त एक वर्ष भी नहीं बीतने पाता कि घर में पारस्परिक झगड़े आरम्भ […]

राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥