उपसंहार
(सन्देश २३) – फरवरी २०१२ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन – सभी शास्त्रों एवं महात्माजनों का यही मत है कि मनुष्य-जीवन की सार्थकता तभी है जब उत्साहपूर्वक और प्रफुल्लचित्त से उसका उपयोग भ्गवत्प्राप्ति के लिये ही हो। भगवत्प्राप्ति में मनुष्य-मात्र का अधिकार है और परम दयालु, करुणासागर प्रभु इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिये जीव को […]
गोष्ठी सदस्यों के लिए बिन्दु
गोष्ठी आयोजित करने के विषय में मार्गदर्शन के कुछ बिन्दु १. यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि गोष्ठी के सदस्यों ने माँसाहार, अण्डाहार, धूम्रपान और मदिरापान का पूर्ण रूप से त्याग किया है। इस विषय में “आनन्द-यात्रा” के प्रथम पुष्प के उपयुक्त लेखों IV का (२०) व (२१) के आधार पर उनसे इस प्रकार […]
गोष्ठी संचालकों के लिए उपयोगी बिन्दु
गोष्ठी में उपस्थित होने वाले सदस्यों के साथ निम्नांकित बिन्दुओं पर चर्चा करके शास्त्रोक्त विचारधारा के प्रति उनकी निष्ठा सुदृढ़ करने की चेष्टा अवश्य करें – १. दैनिक जीवन में यह स्वाभाविक ही स्मरण रहता है कि मैं अमुक संस्थान का सदस्य हूँ, उन्हीं के कार्यालय में काम करता हूँ, उनकी दी गई सामग्री का […]
गोष्ठियों के विषय में मार्गदर्शन
भूमिका – परम पूज्य बाबूजी” (नित्य लीलालीन श्रद्धेय बाबू हनुमानप्रसाद पोद्वार “भाईजी”) की एक पुस्तकमाला ‘लोक परलोक का सुधार’ अथवा काम के पत्र’ नाम से गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित है। उक्त पुस्तकमाला के भाग ४, पत्र संख्या १६ में आपने प्रत्येक कल्याणकामी मनुष्य के लिये दो उपदेश लिखे हैं। प्रथम तो यह कि प्रतिदिन […]
नैष्कर्म्य-सिद्धि
(सन्देश २२) – जनवरी २०१२ का द्वितीय पाक्षिक निवेदन – श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय सं० ३ श्लोक सं० ४ में भगवान् ने कहा है कि – न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते | न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति || अर्थात्, ‘मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता (यानी योगनिष्ठा) को प्राप्त होता है और न कर्मो […]
सत्संग और कुसंग
(सन्देश २१) – जनवरी २०१२ का प्रथम पाक्षिक निवेदन – श्रीमद्भगवद्गीता (२/६२-६३) में मनुष्य के पतन तथा सर्वनाश के कारण का क्रम बताते हुए भगवान् ने कहा है – ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते | सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते || अर्थात्, (हे अर्जुन! मनसहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से) पुरुष के मन द्वारा […]
दुःख-संयोग का वियोग
(सन्देश १९) – दिसम्बर 2011 का प्रथम पाक्षिक निवेदन – नववर्ष की शुभकामना के साथ करें “दुःख-संयोग का वियोग” श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय सं० ६ के श्लोक सं० २३ में भगवान् कहते हैं – तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।। अर्थात् जो दुःखरूप (संसार के) संयोग से राहित है; उसको जानना […]
व्यवसायात्मिका-बुद्धि
(सन्देश १९) – दिसम्बर 2011 का प्रथम पाक्षिक निवेदन – श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २, श्लोक सं० ४० तथा श्लोक सं० ४४ में व्यावसायात्मिका-बुद्धि का उल्लेख है। ‘अवसाय’ का अर्थ ‘दृढ़-निश्चय’ है। यह दृढ़-निश्चय जब विशेष रूप से किसी कल्याणकारी तत्त्व की प्राप्ति के लिये होता है, तो बुद्धि की इस वृत्ति को “व्यवसायात्मिका-बुद्धि! कहा […]
यज्ञ-शेष
(सन्देश १८) – नवम्बर 2011 का द्वितीय पाक्षिक निवेदन – श्रीमद्भगवद्गीता में दो स्थानों पर यज्ञ-शेष का उल्लेख है – यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। भुज्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। अर्थात् ‘यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण […]
नाम-जप
(सन्देश १७) – नवम्बर 2011 का प्रथम पाक्षिक निवेदन – श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि आसक्ति से रहित होकर केवल यज्ञ के निमित्त ही भली-भाँति कर्तव्य-कर्म करना मनुष्य के लिये उचित है (गीता ३/९) | फिर गीता ३/१४ व १५ में भगवान् कहते हैं कि सर्वव्यापी परमात्मा सदा ही यज्ञ में […]