‘हृदय में रामराज्य वरण करें’
श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में संत-कवि श्री तुलसीदासजी ने रामराज्य का वर्णन इस प्रकार आरम्भ किया है –
राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।
“श्रीरामचन्द्रजी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। श्रीरामचन्द्रजी के प्रताप से सबकी विषमता (आन्तरिक भेदभाव) मिट गयी ।” (दोहा २० चौ. ४)
दो० – बरनाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।
सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेदमार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है।” (दोहा २०)
प्रेम और आनन्द से भरे इस रामराज्य का अनुभव हर मनुष्य हर परिस्थिति में आज भी कर सकता है। इसके लिए श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा (पूज्य “नानाजी”) द्वारा श्रीरामचरितमानस की व्याख्या पर आधारित कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं –
१. “रामराज्य” कोई बाहर से किया गया शासन नहीं है। यह तो वह अनुशासन है जिसे मनुष्य को स्वेच्छा से और प्रयत्नपूर्वक वरण करना पड़ता है।
२. इस अनुशासन की दिशा यह होती है कि हर मनुष्य अपने मन की वृत्तियों को अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल चेष्टाओं में लगाए। इसके अन्तर्गत उपयुक्त मर्यादाओं का पालन करते हुए अपने-अपने धर्मयुक्त कर्तव्यों का निर्वाह परमावश्यक है।
३. रामराज्य वर्णन के आरम्भ में ही तुलसीदासजी ने एक महत्त्वपूर्ण कसौटी बताई है। मर्यादा-पालन का पहला प्रभाव यह है कि दूसरों के प्रति आन्तरिक भेदभाव और उससे उत्पन्न वैर मिट जाते हैं। दूसरों में दोष देखने की प्रवृत्ति और उनसे किसी विशेष व्यवहार की आशा समाप्त हो जाती है। सबमें अपने प्रिय प्रभु का दर्शन करके उनके प्रति प्रेम का भाव रहता है, और दृष्टि केवल अपने ही धर्मपालन पर टिकी रहती है।
४. इस प्रकार पवित्र किए गए हृदय के सिंहासन पर जब भगवान् विराजित होते हैं, तब तीनों लोक हर्षित होते हैं और जीवन सुख से भर जाता है।
५. धर्मपालन में तत्पर होने से संसार के भोग फीके लगने लगते हैं और उनको प्राप्त करने के लिए अलग से कोई चेष्टा नहीं की जाती – धर्मशील मनुष्य के पास वे भोग अपने आप बिना बुलाए ही आकर्षित होते हैं। इसका स्पष्ट आश्वासन रामचरितमानस में दिया गया है –
जिमि सरिता सागर महूँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।
अर्थात् “जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती, वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती हैं।” (बालकाण्ड दो. २६४ चौ. १-२)
६. मन में सांसारिक विषय-भोग का महत्त्व न होने से उनके खोने का न तो भय होता है, न शोक। इस कारण, ऐसे मनुष्य को रोग भी नहीं सताते।
७. इन सब लाभों को पाने के लिए अपने वर्ण-आश्रम के अनुरूप मर्यादाओं और धर्म का पालन आवश्यक है। (इसके लिए “आनन्द-यात्रा – द्वितीय पुष्प – गृहस्थाश्रम धर्म” पुस्तक में पुरुष, नारी, छात्र, वृद्ध, विवाहित, अविवाहित – सभी वर्गों के लिए शास्त्र के आधार पर उपयोगी बिन्दु प्रस्तुत हैं)।
८. साथ ही, दूसरों के प्रति भिन्नता, दोषदर्शन और आशा के भावों को हृदय से प्रयत्नपूर्वक उखाड़ फेंकना आवश्यक है। इसके लिए उपयुक्त प्रसंगों के नियमित स्वाध्याय से अपने विचारों को ढालकर निश्चय दृढ़ करना होगा। अधिक से अधिक नाम-जप करते हुए भगवान् का आश्रय लेकर उनसे प्रार्थना करने पर इन भावों से मुक्ति मिल सकती है।
तो आइए, दीपावली के मंगल पर्व पर शरीर-रूपी अयोध्या नगरी में हम श्रीसीतारामजी का स्वागत करें, पवित्र हृदय के सिंहासन पर उन्हें विराजित करें और रामराज्य के आलोक से जीवन को भर लें।
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