आस्तिकता सार के विषय में

॥ राधा ।।

 

1.  दिनांक १०.०३.११ को सभी सदस्यों को ई-मेल द्वारा परम पूज्य राधा बाबा की पुस्तक “आस्तिकता की आधारशिलाएँ” में से तीन लेख भेजे गए थे। सब की सुविधा के लिए इस लेख-समूह को अब से ‘आस्तिकता-सार’ नाम से सम्बोधित किया जा रहा है।

2. “आस्तिकता’-सार के उपरोक्त ३ लेखों के बाद पृ० ५ पर पूज्य नानाजी द्वारा “५ आनन्द बिन्दु” प्रस्तुत हैं। इनका विषय है – “कर्तव्य पालन में अत्यन्त सावधान कैसे रहें और हर परिस्थिति में प्रसन्‍न क्‍यों रहें! ।

3. पूज्य नानाजी का दृढ़ विश्वास है कि जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान पूज्य बाबा के इन तीन लेखों की किसी न किसी पंक्ति में अवश्य मिलेगा । इसलिए सभी से प्रार्थना है कि ‘आस्तिकता’-सार की प्रतिलिपि हर पल अपने निकट रखें जिससे वह सहज रूप से उपलब्ध हो। जैसे ही कोई समस्या उठे, तुरन्त ही लेख की उपयुक्त पंक्ति से समाधान ढूँढा जा सकता है।

4. यह भी व्यवस्था की जा रही है कि सभी के सदुपयोग के लिए हर १५ दिन बाद पूज्य नानाजी द्वारा एक सन्देश भेजा जाए। दिनांक १६.०३.११ को इस पाक्षिक संदेश का पहला अंक सबको ई-मूल किया गया था, जिसका शीर्षक था-“एक ही कर्त्तव्य”।

सदस्यों के पत्रों से यह संकेत मिला है कि “आस्तिकता’-सार के लेख एवं यह पाक्षिक संदेश उन्हें अत्यन्त उपयोगी लगे हैं। अतः इस क्रम को बनाए रखने की चेष्टा की जा रही है।

5. यदि ‘आस्तिकता’-सार के लेखों अथवा किसी भी पाक्षिक संदेश के विषय में कोई प्रश्न या कठिनाई उठे, तो सदस्यों से प्रार्थना है कि ई-मेल द्वारा इसी ई-मेल ‘sinha.swadhyay@gmail.com’ पर भेजने की कृपा करें। ऐसे में अगले पाक्षिक संदेश में उनका समाधान सम्मिलित करने की चेष्टा की जाएगी।

6. ‘आस्तिकता’-सार के लेखों में पंक्ति संख्या का संकेत भी विशेष रूप से दिया गया है। इसका प्रयोजन यह है कि जब कभी इन्हीं लेखों में से कोई समाधान प्रस्तुत करना हो, तो उपयुक्त पंक्ति संख्या का संकेत दिया जाएगा। इससे समाधान की पंक्ति ढूँढने में सुविधा होगी।

7. प्रायः यही पाया जाता है कि जीवन की अधिकाँश समस्याएँ वहीं उठती हैं जहाँ समाज में व्याप्त मान्यताओं और आध्यात्मिक सिद्धान्तों में मेल न हो । इसी असंगति के कारण पारिवारिक सम्बन्धों में क्लेश, तथा बच्चों की पढ़ाई, जीविकोपार्जन तथा विवाह की चिन्ता इत्यादि समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। ऐसे में सदस्य ‘आस्तिकता’-सार के लेखों से इनका समाधान स्वयं ही ढूँढ सकते हैं। यदि समाधान न समझ में आए, तो पूज्य नानाजी से उसका मार्गदर्शन ले सकते हैं।

8. श्रेयस्कर यह होगा कि साधनात्मक प्रश्नों पर विशेष ध्यान देकर उनका समाधान पूछा जाए। इसका प्रमुख अंग यह है कि पारिवारिक सदस्यों एवं सामाजिक स्वजन-इष्ट मित्रों को गीता के नियमित स्वाध्याय के लिए कैसे प्रेरित किया जाए? इस प्रक्रिया में उठने वाली बाधाओं का मूल कारण एवं उनका समाधान अवश्य चिन्हित करना चाहिए।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥