सांसारिक कामनाओं पर नियन्त्रण कैसे हो?

अप्रैल २०११ का प्रथम पाक्षिक निवेदन-

(जीवन-विज्ञान के छठे संस्करण का मानचित्र सं० २ “भाव के अनुसार गति” सामने रखें)

 

१. भगवत्प्राप्ति के लक्ष्य पर दृष्टि स्थिर हो जाने पर आवश्यक सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिये अलग से कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। यथा – 

“जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।। 
तिमि सुख संपति बिनहिं बुलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”

अर्थात्‌ “जैसे नदियाँ समुद्र में जाती है; यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती, वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती हैं।” (बालकाण्ड दो. २९४, चौ. १-२)।

 

२. धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान एवं दाम्पत्य-सुख के भोगों की प्राप्ति कर्तव्यपालन के लिये कुछ सीमा तक सुविधाजनक होती है। किन्तु उनमें महत्त्व-बुद्धि अथवा सुख-बुद्धि केवल अज्ञान के कारण होती है। उदाहरणार्थ, एक जूता पैरों से चलने के लिये उपयोगी एवं सुविधाजनक होता है। किन्तु उसे सुख अथवा महत्त्व का साधन समझने से तो बहुत कीमती या आकर्षक जूता खरीदने का मन करेगा, भले ही उसकी उपयोगिता उतनी न हो। इस आधार पर निर्णय लेना कौन सी बुद्धिमानी है? अतः इन भोगों को न तो चाहना है और अपने आप मिलने पर उन्हें त्यागना भी नहीं है। त्यागना है उनसे सुखी होने का मिथ्याभास। त्यागना है उनका अभिमान और उनकी महिमा का भाव उनके मिलने पर भगवत्प्राप्ति के लक्ष्य में उनका यथावश्यक उपयोग सुखपूर्वक करना है। उनसे प्रेरित होकर उनकी प्राप्ति के लिए चेष्टा करना नरक का खुला द्वार है (गीता १६/२१)।

 

३. यह विचार हर समय रहना चाहिये कि जीवात्मा होने के कारण मनुष्य का स्वरूप परमात्मा से भिन्‍न नहीं है। जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है (गीता १५/७)। वह स्वरूप स्वाभाविक ही नित्य, चेतन, अविनाशी एवं सुख का पुंज ही है। नित्य होने के कारण संसार के किसी अन्य पदार्थ की प्राप्ति में सुख का भाव होना जीवात्मा का महान्‌ भ्रम है। मानचित्र सं०२ के अनुसार, ‘मुझे सुख मिले’ – यह भाव पशु भाव है। इससे प्रेरित होकर स्वार्थ साधन के लिये पाप होते हैं। दूसरों को पीड़ा देना, परावलम्बन, हिंसा, कपट आदि का आचरण करना आवश्यक हो जाता है और जीवात्मा को मरणोपरान्त पशु-पक्षी आदि तिर्यक योनियों की प्राप्ति होती है तथा नरक की भीषण यन्त्रणा अनन्त काल तक सहन करनी पड़ती है।

४. जैसा कि मार्च मास के प्रथम निवेदन में लिखा जा चुका है, इसके विपरीत सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ एवं सर्वसुहृद परमात्मा से एकात्म होने में मनुष्य मात्र का पूरा अधिकार है। सत्संग तथा स्वाध्याय से परमात्मा के ज्ञान की छोटी से छोटी झलक भी यदि मिल जाये तो उन कामनाओं की पूर्ति में मिथ्या सुखाभास का त्याग स्वयं इस प्रकार हो जाता है, जैसे मल-मूत्र का स्वाभाविक त्याग।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥