तांस्तथैव भजाम्यहम्‌

(सन्देश १६) – अक्टूबर 2011 का द्वितीय पाक्षिक निवेदन –

 

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।।

अर्थात्‌ “हे पार्थ! जो मनुष्य जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार से आश्रय देता हूँ, (क्योंकि) सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करने को बाध्य हैं” (गीता ४/११।

१. मनुष्य द्वारा भगवान्‌ की शरण लेना – यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण श्लोक है, जो मनुष्य के सभी व्यवहारों के लिये पथप्रदर्शक है। “प्रपद्यन्ते” शब्द का आशय “प्रपत्ति” अर्थात्‌ शरण लेने से है। भगवान्‌ प्रत्येक भूत-प्राणी के अन्तरात्मा हैं, सब के आदि, मध्य और अन्त में वे ही हैं (गीता १०/२०)। इस प्रकार मनुष्य जो भी व्यवहार किसी भी भूत-प्राणी के साथ करता है, वह व्यवहार वास्तव में भगवान्‌ के साथ ही होता है, अतः वह जाने-अनजाने में उनका ही आश्रय लेता है। उपरोक्त श्लोक के अनुसार भगवान्‌ भी फिर उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं। इस प्रकार भगवान्‌ उसे आश्रय देते ही हैं अर्थात्‌ उसके कल्याण की व्यवस्था करते हैं (गीता ९/१८), चाहे व्यवहार करने वाले का भाव आश्रय लेने का हो या न हो। यदि भाव भी आश्रय लेने का हो, तब तो फिर कहना ही क्‍या है!

२. भगवान्‌ द्वारा आश्रय देना – मनुष्य द्वारा किये जाने वाले व्यवहार में उसका भाव कुछ भी हो, आश्रय देते समय भगवान्‌ का भाव तो परम सुहृदता का ही होता है (गीता ५/२९)। यदि व्यवहार करते समय मनुष्य का भाव हिंसा, द्वेष आदि का हो तो भगवान्‌ द्वारा की गयी क्रिया भी उसी प्रकार की होती है। किन्तु वे उसके भाव के अनुसार उससे द्वेष नहीं करते, केवल उसकी क्रिया के अनुसार क्रिया करके उसका कल्याण ही करते हैं और इस प्रकार उसे अपना आश्रय देते हैं। उदाहरणार्थ – रावण ने वैर भाव से भगवान्‌ राम के साथ युद्ध किया । भगवान्‌ ने भी उसके साथ किया तो युद्ध ही, किन्तु उसे मारकर अपने धाम में ही स्थान दिया। परिणाम यह हुआ कि मरते समय तक रावण को अपने वैर भाव के अनुसार ही स्वजनों के मारे जाने, स्वर्ण-नगरी लंका के जलाये जाने आदि का दुःख ही हाथ लगा। किन्तु मरणोपरान्त उसे भगवान्‌ के अनन्त आनन्द के धाम में स्थान मिला।

 ३. भगवान्‌ का मार्ग – श्लोक की दूसरी पंक्ति में भगवान्‌ बताते हैं कि सब मनुष्य सब प्रकार से भगवान्‌ के मार्ग का अर्थात्‌ वेद-मार्ग का अनुसरण करने के लिये बाध्य हैं। वेद-मार्ग का आधार कर्म के अनुसार कर्मफल की प्राप्ति होना है। यदि कोई गेहूँ बोता है, तो उसे फल रूप में गेहूँ ही प्राप्त होता है, बाजरा या अन्य कोई अन्न नहीं । सांसारिक कानून में भी चोरी न करने की आज्ञा कहीं नहीं है, केवल चोरी करने के फल का उल्लेख है। यदि कोई चोरी करता है तो कानून के अनुसार वह दण्ड का भागी ही होता है। चोरी करने वाला यह नहीं कह सकता कि चोरी को तो किसी कानून में मना नहीं किया, अतः मैं चोरी करने के लिये स्वतंत्र हूँ। मनुष्य भी कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है, किन्तु फल भोगने में भगवान्‌ के विधान के परतंत्र है।

४. उपसंहार – इस श्लोक के द्वारा भगवान्‌ ने अपने को भक्तों के हाथ में रख दिया है। यदि कोई मनुष्य भगवान्‌ का निरन्तर चिन्तन करता है, तो भगवान्‌ भी निरन्तर उसका चिन्तन करते हैं। यदि मनुष्य भगवान्‌ की उपेक्षा करता है, तो भगवान्‌ भी उसकी उपेक्षा करके प्रारब्धानुसार उसके शुभाशुभ कर्मों का फल भुगतवाकर ही उसका कल्याण करते हैं। निष्कर्ष यह है कि यदि हम जीवन में आनन्द चाहते हैं तो सभी भूत-प्राणियों के रूप में प्रकट भगवान्‌ को आनन्द दें। इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥