(सन्देश १४) – सितम्बर 2011 का द्वितीय पाक्षिक निवेदन –
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् का स्पष्ट वचन है –
“अनन्याश्विन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं॑ वहाम्यहम्”
अर्थात् जो भक्तजन अनन्य भाव से निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए सब प्रकार से मेरी उपासना करते हैं, ऐसे मुझसे नित्य जुड़े रहने वाले भक्तजनों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त करा देता हूँ (गीता – ९/२२)।
१. अनन्य भाव से चिन्तन – स्वाभाविक रूप से मनुष्य अन्य लोगों की देखा-देखी सांसारिक धन-सम्पत्ति, मान-प्रतिष्ठा एवं दाम्पत्य सुख के विषयों को प्राप्त करने की चेष्टा करते हुए उन्हीं का चिन्तन करते रहते हैं। किन्तु जो मनुष्य एकनिष्ठ होकर भगवान् में ही अनन्य प्रेम रखते हुए उनसे कभी विभक्त नहीं होते, ऐसे भक्तों के लिये भगवान् भी उनसे प्रेम रखते हुए कभी उन्हें नहीं भूलते (गीता – ४/११)।
२. सब प्रकार से भगवान् की उपासना – भगवान् सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ और सर्वसुहृद हैं। इन चारों विशेषताओं पर अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने से भक्त सब प्रकार से एक भगवान् की ही उपासना करते हैं। इस उपासना के तीन अंग हैं – (क) अपने को भगवान् का भाग समझना (ख) सब प्रकार से उनके गुण, प्रभाव और तत्त्व का रस लेते हुए भजन-कीर्तन करना तथा (ग) उन्हीं की आज्ञानुसार निष्काम भाव से उन्हीं की प्रसन्नता के लिये शास्त्रानुमोदित सारे स्वाभाविक सांसारिक कर्तव्य प्रसन्नतापूर्वक और उत्साहपूर्वक करना।
३. नित्य जुड़े रहने वाले भक्तजन – उपरोक्त प्रकार से भगवान् का चिन्तन और उनकी उपासना करते रहना ही नित्य उनसे जुड़े रहने वाला होना है। भगवान् ने स्पष्ट कहा है – ‘सब समय मेरा ही स्मरण करते हुए युद्ध-रूपी सारे कर्तव्य करो” (गीता – 8/7)।
४. योगक्षेम स्वयं प्राप्त कराना – अप्राप्त की प्राप्ति को योग एवं प्राप्त की रक्षा को क्षेम कहते हैं। शरीर का भरण पोषण तो भगवान् सारे जीव-जन्तुओं के लिये भी उपलब्ध कराते हैं। मनुष्य के लिये उसे उपलब्ध कराना कौन बड़ी बात है? अतः मनुष्य के लिए “योग” का अर्थ है भगवान् से जुड़ना और ‘क्षेम’ का अर्थ है उस सम्बन्ध की सुरक्षा।
वास्तव में भगवान् तो नित्य प्राप्त हैं, किन्तु मनुष्य उन्हें भूला रहता है। इस भूल को मिटाना ही योग साधन है। योग से भगवान् की चारों विशेषताओं में भक्त भागीदार बन जाता है। योग सा६ न की सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं से सुरक्षा भगवान् स्वयं ही कर देते हैं तथा उस साधन के लिये सारी सुविधायें प्राप्त करा देते हैं। उदाहरणार्थ, एक शिशु अशक्त होने के कारण केवल रोकर माँ को पुकारता है। उसका रोना सुनकर माँ उसके पास दौड़ी आती है और गोद में लेकर स्वयं अपना स्तन उसके मुँह में दे देती है। इसी प्रकार भक्त के लिए संत से सम्पर्क तथा सत्संग, स्वाध्याय व नाम-जप के लिए सुविधा, कुसंग से बचाव इत्यादि की व्यवस्था भगवान् स्वयं ही करते हैं। साथ ही भक्त के योग साधन को स्थायी भी कर देते हैं।
किन्तु मनुष्य को तो वास्तविक कल्याण को ही लक्ष्य करके अपनी शक्ति-भर निरन्तर योग साधन में लगा रहना चाहिये। फिर उसकी सारी लौकिक एवं पारमार्थिक समस्याओं का समाधान भगवान् स्वयं इस रीति से करते हैं कि वह मुग्ध हो जाये। इस मुग्धता में निरन्तर डूबे रहना और उसकी निरन्तर अभिवृद्धि होते रहना – यह प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है।
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