शुभ दीपावली २०२०

‘हृदय में रामराज्य वरण करें’

श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में संत-कवि श्री तुलसीदासजी ने रामराज्य का वर्णन इस प्रकार आरम्भ किया है –

 

राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।

“श्रीरामचन्द्रजी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। श्रीरामचन्द्रजी के प्रताप से सबकी विषमता (आन्तरिक भेदभाव) मिट गयी ।” (दोहा २० चौ. ४)

 

दो० – बरनाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।

सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेदमार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है।” (दोहा २०)

 

प्रेम और आनन्द से भरे इस रामराज्य का अनुभव हर मनुष्य हर परिस्थिति में आज भी कर सकता है। इसके लिए श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा (पूज्य “नानाजी”) द्वारा श्रीरामचरितमानस की व्याख्या पर आधारित कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं –

 

१. “रामराज्य” कोई बाहर से किया गया शासन नहीं है। यह तो वह अनुशासन है जिसे मनुष्य को स्वेच्छा से और प्रयत्नपूर्वक वरण करना पड़ता है।
२. इस अनुशासन की दिशा यह होती है कि हर मनुष्य अपने मन की वृत्तियों को अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल चेष्टाओं में लगाए। इसके अन्तर्गत उपयुक्त मर्यादाओं का पालन करते हुए अपने-अपने धर्मयुक्त कर्तव्यों का निर्वाह परमावश्यक है।
३. रामराज्य वर्णन के आरम्भ में ही तुलसीदासजी ने एक महत्त्वपूर्ण कसौटी बताई है। मर्यादा-पालन का पहला प्रभाव यह है कि दूसरों के प्रति आन्तरिक भेदभाव और उससे उत्पन्न वैर मिट जाते हैं। दूसरों में दोष देखने की प्रवृत्ति और उनसे किसी विशेष व्यवहार की आशा समाप्त हो जाती है। सबमें अपने प्रिय प्रभु का दर्शन करके उनके प्रति प्रेम का भाव रहता है, और दृष्टि केवल अपने ही धर्मपालन पर टिकी रहती है।
४. इस प्रकार पवित्र किए गए हृदय के सिंहासन पर जब भगवान्‌ विराजित होते हैं, तब तीनों लोक हर्षित होते हैं और जीवन सुख से भर जाता है।
५. धर्मपालन में तत्पर होने से संसार के भोग फीके लगने लगते हैं और उनको प्राप्त करने के लिए अलग से कोई चेष्टा नहीं की जाती – धर्मशील मनुष्य के पास वे भोग अपने आप बिना बुलाए ही आकर्षित होते हैं। इसका स्पष्ट आश्वासन रामचरितमानस में दिया गया है –

 

जिमि सरिता सागर महूँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।

अर्थात्‌ “जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती, वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती हैं।” (बालकाण्ड दो. २६४ चौ. १-२)

 

६. मन में सांसारिक विषय-भोग का महत्त्व न होने से उनके खोने का न तो भय होता है, न शोक। इस कारण, ऐसे मनुष्य को रोग भी नहीं सताते।
७. इन सब लाभों को पाने के लिए अपने वर्ण-आश्रम के अनुरूप मर्यादाओं और धर्म का पालन आवश्यक है। (इसके लिए “आनन्द-यात्रा – द्वितीय पुष्प – गृहस्थाश्रम धर्म” पुस्तक में पुरुष, नारी, छात्र, वृद्ध, विवाहित, अविवाहित – सभी वर्गों के लिए शास्त्र के आधार पर उपयोगी बिन्दु प्रस्तुत हैं)।
८. साथ ही, दूसरों के प्रति भिन्‍नता, दोषदर्शन और आशा के भावों को हृदय से प्रयत्नपूर्वक उखाड़ फेंकना आवश्यक है। इसके लिए उपयुक्त प्रसंगों के नियमित स्वाध्याय से अपने विचारों को ढालकर निश्चय दृढ़ करना होगा। अधिक से अधिक नाम-जप करते हुए भगवान्‌ का आश्रय लेकर उनसे प्रार्थना करने पर इन भावों से मुक्ति मिल सकती है।

तो आइए, दीपावली के मंगल पर्व पर शरीर-रूपी अयोध्या नगरी में हम श्रीसीतारामजी का स्वागत करें, पवित्र हृदय के सिंहासन पर उन्हें विराजित करें और रामराज्य के आलोक से जीवन को भर लें।

 

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राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥