नव वर्ष २०२२

॥ राधा ॥

हम मृत्यु-रूपी फाँसी से सदा के लिए छूटने का दृढ़ संकल्प लें।

श्री युगल सरकार, पूज्य संतों व गुरुजनों के असीम प्रेम से हम पुनः नवीन वर्ष के स्वागत हेतु प्रस्तुत हुए हैं। बीते दो वर्षों में कोविड के कारण पूरा जनमानस शरीर-नाश के भय एवं प्रियजनों के वियोग के दुःख से अक्रान्त है।

इस दुःख और भय के स्थायी निवारण हेतु भगवान्‌ ने स्पष्ट मार्गदर्शन प्रदान किया है। गीता के अध्याय २ के श्लोक सं १२ एवं १३ में भगवान कहते हैं कि वर्तमान शरीर केवल थोड़े समय के लिए ही दिखाई देता है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर के अप्रकट हो जानेपर आत्मा का भी नाश हो जाएगा। आत्मा का जीवन अनन्त है पर कुछ समय के लिए शरीर द्वारा उसका प्राकट्य होता है। जैसे शरीर बालकपन में छोटा, यौवन में विकास को और वृद्धावस्था होने पर क्षय को प्राप्त होता है, इसी प्रकार एक शरीर का त्यागना और दूसरे शरीर की प्राप्ति भी इसी क्रम का अंग है। परन्तु इन सब बदलाव में आत्मा (हम) का नाश नहीं होता, वह तो सदैव विद्यमान रहती है।

मनुष्य-जीवन अल्प होते हुए भी हमारे समक्ष यह सुन्दर अवसर प्रस्तुत करता है कि थोड़े से प्रयास से हम जन्म-मरण के दुःख से छूट जाएँ और सदैव के लिए सुखी हो जाएँ। जहाँ कोई दुःख न हो, प्रियजन से वियोग की कोई दुराशा न हो। केवल सुख, आनन्द और प्रकाश हो।
इस विषय में भगवान्‌ गीता अ० १८ श्लोक ६५ में स्पष्ट निर्देश देते हुए कहते हैं-

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥

मुझमें ही मन वाले मेरे भक्त और मेरा ही पूजन करने वाले हो जाओ तथा मुझे ही प्रणाम करो (फ़िर तुम) मुझे ही प्राप्त हो जाओगे – यह मैं तुमसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, (क्योंकि तुम) मेरे अत्यन्त प्रिय हो।

भगवान्‌ की इन आज्ञाओं को व्यावहारिक जीवन में कैसे उतारा जाए, यह निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट हो जाएगा-

१. प्रतिदिन नियमित रूप से सद्ग्रन्थों (श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीरामचरितमानस, श्रीमदभागवत महापुराण) का पाठ, सन्तों के वचनों को श्रद्धापूर्वक सुनना और अपने मन को भक्ति भाव से ओत-प्रोत करना।

२. भगवान्‌ के प्रत्येक विधान को मंगलकारी समझते हुए सब परिस्थितियों में उन पर ही निर्भर रहने की चेष्टा करना एवं हर व्यक्ति और परिस्थिति में उनको देखना।

३. प्रतिदिन कम से कम १६ माला षोडश मंत्र का नाम जप।

४. हर शास्त्र-विहित कर्म (सत्कर्म) केवल उनकी शक्ति से, उनकी प्रीति के लिए और फल उन्हीं को समर्पित करना।

५. भगवान्‌ के चित्र, मूर्ति, चरण-चिन्ह और सत्शास्त्रों को शरीर एवं मन से प्रणाम कर मन में उनके प्रति प्रियता को बढ़ाना।

भगवान्‌ यह स्पष्ट आश्वासन देते हैं कि जो इन बिन्दुओं का पालन करेगा वह उन्हें प्राप्त हो मृत्यु रूपी-फॉँसी से सदा के लिए मुक्त हो जाएगा।

तो आइए, इस नववर्ष में हम यह दृढ़ संकल्प लें कि भगवान्‌ की इन आज्ञाओं का अपने जीवन में पालन कर मृत्यु के भय से मुक्त हो जाएँगे और परम आनन्द की ओर बढ़ चलें।

 

Download Pdf

 

राधा निकुंज

पूज्य नानाजी-नानीजी का गृहस्थाश्रम

सौंप दिये मन प्राण तुम्हीं को

पद रत्नाकर पद ४५४

सौंप दिये मन प्राण तुम्हींको सौंप दिये ममता अभिमान।
जब जैसे, जी चाहे बरतो, अपनी वस्तु सर्वथा जान ॥

मत सकुचाओ मनकी करते, सोचो नहीं दूसरी बात।
मेरा कुछ भी रहा न अब तो, तुमको सब कुछ पूरा ज्ञात ॥

मान-अमान, दुःख-सुखसे अब मेरा रहा न कुछ सम्बन्ध |
तुम्हीं एक कैवल्य मोक्ष हो, तुमही केवल मेरे बन्ध ॥

रहूँ कहीं, कैसे भी, रहती बसी तुम्हारे अंदर नित्य ।
छूटे सभी अन्य आश्रय अब, मिटे सभी सम्बन्ध अनित्य ॥

एक तुम्हारे चरणकमल में हुआ विसर्जित सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही, करो सदा स्वच्छन्द विहार ॥

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम

पद रत्नाकर पद ४३८

आजु इन नयनन्हि निरखें श्याम ।
निकले है मेरे मारग तैं नव नटवर अभिराम ॥

मो तन देखि मधुर मुसुकाने मोहन-दृष्टि ललाम।
ताही छिन तैं भए तिनहिं के तन-मन-मति-धन-धाम ॥

हौं बिनु मोल बिकी तिन चरनन्हि, रह्मौ न जग कछु काम ।
माधव-पद-पंकज पायौ नित मन-मधुकर बिश्राम ॥

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन

पद रत्नाकर पद ३१७

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन ॥

भई बिकल, छायौ विषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन ।
उर-रस जरयौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन ॥

लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन ।
बानी रूकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन ॥

भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन ॥

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ

पद रत्नाकर पद १२७

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज ॥

अन्तर में स्थित रहकर मेरी बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चञ्चल मन को सावधान करते रहना ।।

अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशङ्कित होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन ॥

जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ॥

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अन्तर भर मिलूँ सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय-समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ ।।

मंद-मंद मुसकावत आवत

पद रत्नाकर पद २६९

मंद-मंद मुसकावत आवत ।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत ॥

नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित ।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित ॥

सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन ।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्ण-घन ॥

मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत ।
चित्त-बित्त हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग फेरत ॥

मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन ।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः पुनः अर्पित कौं अरपन ॥

कृपा जो राधाजू की चहियै

पद रत्नाकर पद २३

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै ।।

माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै ।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै ॥

राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै ।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै ॥

रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै ।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै ॥

निभृत निकुंज - मध्य

पद रत्नाकर पद २३५

निभृत-निकुञ्ज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास ।
मधुर दिव्य लीला-प्रमत्त वर बहा रहे निर्मल निर्यास ॥

बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास ।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश ॥

सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम ।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम ॥

‘मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम ।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम ॥

जय वसुदेव-देवकीनन्दन

पद रत्नाकर पद २५

जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥

बाँकी भौहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी ।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी ॥

अरूण अधर धर मुरलि मधुर मुसकान मंजु मृदु सुधिहारी ।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी ॥

गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ सुरभित सुमनों की माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब सम्मोहित ब्रजजन-ब्रजबाला ॥

जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नंदनन्दन ।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन ॥